ग्राम्य
जीवन के चितेरे कथाकार रत्न कुमार सांभरिया की रचनाओं में दलित वर्ग की पीड़ा की
अभिव्यक्ति पाठक के मर्म को छू- छू जाती
है। ‘जीने की राह’ लघुकथा भी इस काव्यानुभूति से अछूती नहीं है।
जीने की
राह
रत्नकुमार साभंरिया
रत्नकुमार साभंरिया
लोहे के सरियों से लक़दक़ हाथ-रेहड़ी के जुआ को अपने पेट से सटाकर खींचता हुआ, वह गंतव्य की ओर जा रहा था। जिस रास्ते को उसे तय करना था, उसमें कहीं टायर धँसता था, कहीं खड्डे भरे थे, कहीं नुकीले पत्थर खड़े थे, कहीं कांटे-कंकरीट पड़े थे। आधा किलोमीटर का रास्ता पहाड़ की ऊंची चोटी चढ़ने से भी ज्यादा कष्टदायी महसूस हुआ था उसे। हालाकि मौसम सर्दी का था, लेकिन उसके बदन पर पसीना था। चलते-हंकते उसे हाँफी छूट जाती, तो वह रेहड़ी के जुआ की मूठ जमीन पर टिकाकार सुस्ताने बैठ जाता। जेब से बीड़ी निकालकर उसे फूंकता, गीली मिट्टी की लुगती खून के उद्गम श्रोतों पर उन्हें रख दबाता तो सांस जुड़ती, फिर रेहड़ी खींचता। डामर की सड़क आती,उसके पंजों से निकलते लहू के चकत्ते पड़ जाते।
सूमों
के ठुके तैनालों की खटपट के साथ एक घोड़ा दौड़ता हुआ उसे पीछे छोड़ गया था।
समान
छोडने के बाद वह घर आकर सीधा खाट में जा गिरा और ज़ोर-ज़ोर से कराहने लगा। उसकी
पत्नी रोज की तरह गरम गर्म पानी की बाल्टी लाकर उसके पास बैठ गई। वह फाहों को गर्म
पानी में डुबोती और उसके तलबों को सेकती थी। गर्म पानी के फाहों की रगड़ से जब गीली
मिट्टी बह गई तो घावों का मुख चमकने लगा। उसकी पत्नी ने घावों में धँसे छोटे-छोटे
कांटे, पत्थर की किरचें, लकड़ी की एक लंबी फांस निकाली। वह
एक टीसभरी हे-हे के साथ सिकुड़कर रह गया था।
अपने
पति की दुर्दशा देखकर उसका मन पीड़ा से भर आया था। विस्फारित नेत्रों में आँसू डबडबाने
लगे थे। रोती सी बोली-“अभी जाकर जूतियाँ पहन आओ। इस तरह कितने दिन रह पाओगे?”
उसने अपने
हड़ीले चेहरे में धँसी छोटी-छोटी आँखों को टिमटिमाकर अपनी पत्नी को समझाया-“जूतियाँ
चार दिन नहीं पकड़ेंगी। पैसे बेकार। तैनालवाले के पास जाऊंगा कल, वह घोड़ों की तरह मेरे पंजों में भी लोहा ठोंक दे---।”
पति-पत्नी
एक दूसरे से लिपट गए और देर तक रोते रहे।
संकलनकर्ता –सुधा भार्गव
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