पति-पत्नी की मीठी नोंक-झोंक व प्रणय भाव की अभिव्यक्ति इस लघुकथा में बहुत सुंदर बन पड़ी है।
वे दोनों इतनी ऊंची आवाजों में बोलने लगे ,जैसे अभी एक दूसरे का खून कर देंगे।
‘मैं अब इस घर में एक पल नहीं रहूँगी। स्त्री चीखी-बहुत रह चुकी इस नरक
में।`` क्रोध से उसके नथुने फड़क रहे थे, टांगें काँप रही थीं। आँखों से आँसू बहने लगे थे।
“यह
निर्णय तुम्हें बहत पहले कर लेना था,अल्पना!” पति ने
घाव पर नमक छिड़का।
“अभी
कौन सी देर हो गई।``
“जो
देर हो गई है ,मैं उसका प्रायश्चित कर लूँगा।"वह एक- एक शब्द चबाकर बोला---।
उसने
सिगरेट सुलगाई । पैर मेज पर टिकाए। धुएँ के छल्ले अल्पना की ओर उड़ाकर लापरवाही से
घूरने लगा।
“तुमने
कहा था न कि मेज पर पाँव टिकाकार नहीं बैठूँगा।"अल्पना ने
आग्नेय दृष्टि से पति की ओर घूरा।
“कहा
था।"और उसने पैर नीचे उतार लिए।
“और
सिगरेट! इतनी खांसी उठती है फिर भी सिगरेट पीने से बाज नहीं आते ।"वह आगे बढ़कर पति के मुंह से सिगरेट झपटने को हुई तो उसने स्वयं ही सिगरेट
जूते के नीचे मसल दी।
“और
कुछ !”वह गुर्राया।
“हाँ-हाँ
जो-जो भी मन में हो,तुम भी कह डालो।"वह अपने कपड़े अटैची में ठूँसती जा रही थी और सुबक रही थी।
वह
एकटक देखता रहा। चुपचाप। उसके होंठ कुछ कहने को फड़कने लगे।
“क्या तुम मुझे कुछ भी नहीं कह सकते?” वह भरभरा उठी। शिकायती लहजे में बोली-“मैंने मेज से पाँव हटाने के लिए
कहा,आपने हटा लिए। मैंने सिगरेट पीने से मना किया।आपने
सिगरेट जूते के नीचे मसल दी।"
“किसी
की सुनो तो कोई कुछ कहे भी। तुमने सुनना सीखा ही नहीं। मैं कहकर और तूफान खड़ा करूँ?”
“ठीक
है। मैं जा रही हूँ।``वह भरे गले से बोली और पल्ले से
आँखें पोंछने लगी।
“इतनी
आसानी से जाने दूंगा तुम्हें। ” पति ने आगे बढ़कर अटैची उसके हाथ से छीन ली “जाओ खाना बनाओ,जल्दी। मुझे बहुत भूख लगी है।``
अल्पना
गीली आँखों से मुसकुराई और रसोईघर में चली गई।
समाप्त
समाप्त
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें