प्रण
वीरेंद्र नारायण झा
प्रकाशित -नवलेखन विशेषांक,अक्टूबर 2004 भारतीय भाषा परिषद कलकत्ता
उस रात चील के परिवार में फाकाकशी थी। भूख से बिलबिलाते बच्चों ने जब शोर मचाना शुरू किया तो चील ने अपनी धर्म पत्नी से कहा-‘क्यों भाग्यवान ,घर में आज कुछ भी नहीं है जो बच्चों को देकर शांत करती। देखो तो,बेचारे कैसे पेट पकड़कर भोजन के लिए रो रहे हैं।’
पत्नी ने झल्लाते हुए उत्तर दिया –‘यह तो पहले सोचना चाहिए था न - - । अब इतनी रात गए मैं कहाँ से लाऊं ?लेकिन ऐसा क्यों किया आपने? घर लौटते वक्त कुछ तो साथ ले लेते। धरती पर लाशों का अभी अकाल नहीं हुआ है - - -।’
‘हाँ भाग्यवान,तुम ठीक ही कह रही हो। लाश की थोड़े ही कोई कमी है, लेकिन - - - । खैर,छोड़ो - - - ।
‘लेकिन क्या? साफ साफ कहिए न।’
चील अपनी पत्नी की जिद को टाल नहीं सका और कहा-‘धरती पर आज एक विचित्र घटना देखने को मिली। भूख और मुफलिसी से तंग आकर एक आदमी ने खुद को जलाकर मार डाला। उसकी लाश जमीन पर गिरी हुई थी। देखकर मेरी आत्मा रो पड़ी। मुझसे उसका मांस नोचा नहीं गया और मैं खाली हाथ वापस आ गया - - - ।’
‘बहुत अच्छा किया प्राणनाथ! हमारे बच्चे भले ही भूख से तड़पकर प्राण गंवा दें,लेकिन हम किसी भूखे आदमी की लाश का एक टुकड़ा भी उनके मुंह में नहीं रखेंगे।’
संपर्क -कैचेट फर्मास्युटिकल्स लि॰
एक्ज़ीविशन रोड,पटना -800001
संकलनकर्ता/सुधा भार्गव
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