तूलिकासदन

शनिवार, 26 मई 2018

लघुकथाकार किशोर श्री वास्तव की लघुकथा ॥ 25॥



शैतानी

 लघुकथाकार किशोर श्रीवास्तव



      आज फिर मैंने रोज-रोज की शैतानियों से तंग आकर अपने सात वर्षीय बेटे की धुनाई कर दी। मैंने उसे चेतावनी देते हुए कहा-“यदि आज तूने मुझसे बात की तो तेरी खैर नहीं।” यही नहीं, गुस्से में आज मैंने उसके साथ खाना न खाने की प्रतिज्ञा भी कर डाली।जबकि मैं जानता था कि शाम का खाना वह मेरे ही साथ खाता है, भले ही उसे मेरा कितना ही इंतजार क्यों न करना पड़े। आज मैंने कार्यालय जाते समय उसे प्यार भी नहीं किया। कार्यालय जाकर मैं अपने रोज़मर्रा के कामों में इस कदर उलझ गया कि कब चपरासी मेरी टेबल पर लंच रखकर चला गया और कब मैंने उसे खा लिया इसका मुझे होश ही न रहा। कार्यालय के कुछ महत्वपूर्ण कामों के चलते शाम को घर पहुंचने में  भी काफी देरी हो गई। घर पहुंचा तो पत्नी सोती मिली। बेटे ने ही दरवाजा खोला। परंतु मैं बगैर उससे कोई बात किए ड्राइंग रूम के सोफे पर पसर गया। अचानक मेरी  नजर फर्श पर गिर पड़ी एक तस्वीर पर पड़ी,जो ड्राइंग की दीवार पर बहुत दिनों से टंगी हुई थी। शायद हवा से उखड़कर वह गिर गई थी। मैं स्टूल पर चढ़कर उस तस्वीर को पुन: दीवार पर टाँगने की कोशिश करता रहा। तस्वीर टाँगने के पश्चात जब मैं स्टूल से नीचे उतरने को झुका तो देखा,बेटा दोनों हाथों से ज़ोर से स्टूल को थामे खड़ा है। उसे वहाँ देखकर मेरा पारा फिर गरम हो उठा।
      मैं उस पर बरसते हुए चिल्लाया, “क्यों रे,अब तू यहाँ स्टूल पकड़े खड़ा क्या कर रहा है---क्या कोई नई शरारत सूझी है तुझे?”
      इस पर डरते –डरते वह धीरे से बुदबुदाया, “पापा शरारत नहीं---कहीं आप गिर पड़ते तो---?”
       धीमी आवाज में कहे गए उसके उपर्युक्त शब्द मेरे कानों से जा टकराए।  मेरा गुस्सा पल भर में काफूर हो गया था। मैंने स्टूल से नीचे उतरकर उसे अपनी बाहों मेँ भर लिया। मेरी बाहों में आते ही वह मेरे कान के पास अपना मुंह सटाकर धीरे से फुसफुसाया , “पापा---चलो मेरे साथ---खाना खा लो—मुझे बहुत भूख लगी है---मैंने आपके इंतजार में सुबह से कुछ भी नहीं खाया है---।”

संकलनकर्ता-सुधा भार्गव 







मंगलवार, 15 मई 2018

लघुकथाकार रत्नकुमार साभंरिया की लघुकथा ॥ 24॥



     ग्राम्य जीवन के चितेरे कथाकार रत्न कुमार सांभरिया की रचनाओं में दलित वर्ग की पीड़ा की अभिव्यक्ति  पाठक के मर्म को छू- छू जाती है। जीने की राह  लघुकथा भी इस काव्यानुभूति से अछूती नहीं है।


 जीने की राह

रत्नकुमार साभंरिया
      
      


      लोहे के सरियों से लक़दक़ हाथ-रेहड़ी के जुआ को अपने पेट से सटाकर खींचता हुआ, वह गंतव्य की ओर जा रहा था। जिस रास्ते को उसे तय करना था, उसमें कहीं टायर धँसता था, कहीं खड्डे भरे थे, कहीं नुकीले पत्थर खड़े थे, कहीं कांटे-कंकरीट पड़े थे। आधा किलोमीटर का रास्ता पहाड़ की ऊंची चोटी चढ़ने से भी ज्यादा कष्टदायी महसूस हुआ था उसे। हालाकि मौसम सर्दी का था, लेकिन उसके बदन पर पसीना था। चलते-हंकते उसे हाँफी छूट जाती, तो वह रेहड़ी के जुआ की मूठ जमीन पर टिकाकार सुस्ताने बैठ जाता। जेब से बीड़ी निकालकर उसे फूंकता, गीली मिट्टी की लुगती खून के उद्गम श्रोतों पर उन्हें रख दबाता तो सांस जुड़ती, फिर रेहड़ी खींचता। डामर की सड़क आती,उसके पंजों से निकलते लहू के चकत्ते पड़ जाते।
      सूमों के ठुके तैनालों की खटपट के साथ एक घोड़ा दौड़ता हुआ उसे पीछे छोड़ गया था।
      समान छोडने के बाद वह घर आकर सीधा खाट में जा गिरा और ज़ोर-ज़ोर से कराहने लगा। उसकी पत्नी रोज की तरह गरम गर्म पानी की बाल्टी लाकर उसके पास बैठ गई। वह फाहों को गर्म पानी में डुबोती और उसके तलबों को सेकती थी। गर्म पानी के फाहों की रगड़ से जब गीली मिट्टी बह गई तो घावों का मुख चमकने लगा। उसकी पत्नी ने घावों में धँसे छोटे-छोटे कांटे, पत्थर की किरचें, लकड़ी की एक लंबी फांस निकाली। वह एक टीसभरी हे-हे के साथ सिकुड़कर रह गया था।
     अपने पति की दुर्दशा देखकर उसका मन पीड़ा से भर आया था। विस्फारित नेत्रों में आँसू डबडबाने लगे थे। रोती सी बोली-“अभी जाकर जूतियाँ पहन आओ। इस तरह कितने दिन रह पाओगे?”
      उसने अपने हड़ीले चेहरे में धँसी छोटी-छोटी आँखों को टिमटिमाकर अपनी पत्नी को समझाया-“जूतियाँ चार दिन नहीं पकड़ेंगी। पैसे बेकार। तैनालवाले के पास जाऊंगा कल, वह घोड़ों की तरह मेरे पंजों में भी लोहा ठोंक दे---।”
      पति-पत्नी एक दूसरे से लिपट गए और देर तक रोते रहे।

संकलनकर्ता –सुधा भार्गव

बुधवार, 2 मई 2018

लघुकथाकार भगवान वैद्य ‘प्रखर’ की लघुकथा' ॥ 23॥ .



तरक्की 


भगवान वैद्य प्रखर


     
      अपनी उपज के दाम लेकर अभी-अभी गया किसान लौटकर आढ़तिये के पास आया और नोटों की गड्डी दिखाते हुए कहने लगा, “यह गड्डी मुझे अभी दी आपने ! इसमें गड़बड़ है।”
     मैंने पहले ही कहा था, गिन लो। एक बार यहाँ से चले जाने के बाद मेरी  कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती। चलते बनो यहाँ से।”-आढ़तिया झुंझलाया।
     “दस कदम ही तो गया था। मुझे गिनना नहीं आता इसलिए अपने एक साथी से गिनवाया।”
     “ज्यादा होशियार मत बनो। अब कुछ नहीं हो सकता। हटो यहाँ से, हवा आने दो। एक तो आज वैसे ही भीड़ है। ऊपर से ऐसे लोग चले आते हैं सिर खाने ---!” आढ़तिया दूसरे किसान की ओर मुड़ गया था।
     मेरा साथी कह रहा है, इस गड्डी में सौ की बजाय एक सौ दो नोट हैं दो नोट
ज्यादा----।" किसान की बात पूरी भी न हो पाई थी कि आढ़तिये ने कुर्सी से उठकर  किसान के हाथ से गड्डी झटक ली। नोट गिने और दो नोट निकालकर गड्डी किसान को लौटा दी। किसान संतुष्ट होकर मुड़ा ही था कि आढ़तिया बुदबुदाया, “जो दस रुपए के दो नोट नहीं पचा सकते, वो जीवन में क्या तरक्की करेंगे!”

संकलनकर्ता –सुधा भार्गव  
   




शुक्रवार, 20 अप्रैल 2018

कहानीकार रवीन्द्र वर्मा की लघुकथा ॥ 22॥



रेत का पर्दा
      
       तदभव पत्रिका  अंक 8 अक्तूबर 2002 में प्रतिष्ठित कहानीकार रवीन्द्र वर्मा की पाँच कहानियाँ प्रकाशित हुई थीं । उनमें से एक रेत का पर्दा है। इसको कहानी तो  कहा है पर अपने शिल्प में यह लघुकथा ही है । हृदय की व्यथा और घुटन को बड़े कलात्मक रूप में व्यक्त किया है । इसलिए यह कुछ अलग सी लगती है।
      



      दीनदयाल की सुबह की चाय का टाइम आठ बजे था। जब वे नौ बजे तक हॉल में नहीं आए ,तो बहू ने अंदर जाकर कमरे में देखा वे चित्त लेटे थे जैसे किसी समाधि में हों। “बाबूजी,बाबूजी” जयंती ने पुकारा। शरीर में कोई जुंबिश नहीं हुई। फिर जयंती ने शरीर का हाथ हिलाया। हाथ हिला जैसे कोई लकड़ी हिली हो।जयंती ने शरीर टटोला जिस तरफ दिल था। वह भागती हुई हॉल में गई। फोन किया। तुरंत नीचे की मंजिल से आकर डॉक्टर मेहता  ने मुआयना किया और दीनदयाल को मृत घोषित कर दिया।
      जयंती चीखी।
     “मगर क्यों?”दफ्तर के लिए तैयार खड़े किशन ने हैरानी से कहा, “वे भले चंगे सोये थे।”
     “इस उम्र में कुछ भी हो सकता है।” डॉक्टर ने कहा, दिल का दौरा भी। ”
     “मगर उनको दिल की कोई बीमारी नहीं थी।”
     दिल यूं ही रुक सकता है---अचानक थक कर।”
     “मगर कोई वजह तो हो?”किशन ने जिद की।
     डॉक्टर ने कुछ खीजकर कहा,”वजह जानने के लिए पोस्टमार्टम कराना पड़ेगा।”
     किशन सोच में पड़ गया । उसने कुछ कहा नहीं। सोचा जरूर कि पोस्टमार्टम तो हत्या या अत्महत्या की वजह जानने के लिए होता है।
      जब अर्थी उठी तो बबलू बिलख –बिलख कर रोया। वह यह कहते हुए माँ से लिपटा कि दादाजी क्यों जा रहे हैं,उसे क्यों रोज की तरह साथ नहीं ले जाते? कल भी नहीं ले गए थे।
     कल असल में दादाजी ने बबलू से बहुत कम बात की थी। खाना खाते वक्त वह दोपहर में  मेज पर साथ बैठा तो हाँ ना में कुछ कहा था।वे बाजार अकेले ही चले गए थे। कल सुबह बबलू का अंग्रेज़ी दिन शुरू हुआ था।उसे तीन माह बाद कोनवेंट ऑफ जीजस एंड मेरी में प्रवेश के लिए लिखित और मौखिक परीक्षा देनी थी। इसलिए जयंती और किशन ने तय किया था कि अभ्यास के लिए अब घर में बबलू से अँग्रेजी में ही वार्तालाप होगा। उनका कहना था कि वह तभी कुछ सीख सकेगा और बोलने का आत्मविश्वास अर्जित कर सकेगा। जयंती फर्राटे से अँग्रेजी बोलती थी। उसे बहुत बुरा लगा था जब परसों मिसेज डीसूजा अपने दोनों बच्चों के साथ मिलने आई थीं और उन्होंने अपने दोनों बच्चों से कहा था कि बबलू से हिन्दी में बात करो उसे अँग्रेजी नहीं आती। यह उन्होंने अँग्रेजी में कहा था जिसे जयंती ने सुना था। यह संयोग ही था कि तीन माह बाद बबलू को प्रवेश परीक्षा में बैठना था। उसी रात जयंती और किशन की मंत्रणा के बाद कल सुबह से घर में अँग्रेजी का शाश्वत पीरियड लगने का ऐलान हो गया था।
     दीनदयाल सकते में आ गए थे।
     वे कल अनमने से उठे थे। पार्क में उगते सूरज की किरणों के साथ घूमते हुए वे पेड़ों की पत्तियों को घूरते रहे थे। उन्होंने हर दूसरी झाड़ी से पत्ती नोच ली थी। पार्क की पगडंडी पर कई बार जूते से ठोकर मारी थी। जब धूल सूर्य की किरणों में चमकती  तो उन्हें अच्छा लगता। फिर वे थककर बेंच पर बैठ गए थे और बैठे रह गए थे। कितनी देर? उन्हें पता ही नहीं चला था। जब धूप बेंच तक आ गई और उनकी आँखें चौंधियायी , तब उन्हें पता चला।
      रोज की तरह कल सुबह उन्होंने पार्क से लौटकर बबलू के कमरे में नहीं झाँका था। न उसे सोया जानकर अखबार पढ़ते हुए उसके जागने का इंतजार किया था। बल्कि उन्हें आश्चर्य हुआ था कि उन्होंने अखबार से आँखें नहीं उठाईं जब बबलू हॉल में आया। कोई और दिन होता तो अखबार फेंककर वे बबलू को बाहों में उठा लेते और चीखते-“आ जा मेरे राजा!”
     बबलू  कुछ देर उनके आसपास घूमता रहा, फिर अंदर चला गया था जहां से उसके रोने की आवाज आई थी ।
      वे तब भी अंदर उसे गोद में लेकर घुमाने ले जाने नहीं गए थे।
      दोपहर तक उनकी समझ में आ गया था कि उनके पैर उन्हें वहाँ नहीं ले जाना चाहते थे जहां बबलू था। जब बबलू वहाँ आ जाता जहां वे थे,तो वे यस  नो करने लगते-ज़्यादातर “नो”। उन्हों ने कभी अपने बच्चों से अँग्रेजी में बातें नहीं की थीं। अँग्रेजी में उन्होंने सिर्फ अपने अफसर या मातहतों से बात की थी। अब जब वे कभी बहुत क्रुद्ध होते तो अँग्रेजी में बड़बड़ाने लगते थे। बबलू से अँग्रेजी में बात करने का मतलब उससे क्रुद्ध होना था।
      वे बबलू से क्रुद्ध नहीं हो सकते थे।
      कल दिनभर उनके चारों ओर घर में अदृश्य रेत उड़ती रही थी जैसे घर घर न हो रेगिस्तान हो। रात को उन्होंने रेगिस्तान का सपना देखा था जहां गरम हवाओं के चक्रवात थे और उनके बीच रेत के पर्दे उड़ रहे थे। उनकी अंतिम स्मृति रेत  का एक काँपता पर्दा थी ,जिसके पीछे उन्होंने अपने को खोटते हुए देखा था। उन्हें खुद मालूम नहीं था कि वे उस क्षण जाग रहे थे या सपना देख रहे थे।
      किशन को कभी पता नहीं चला कि पिता देह छोड़कर क्यों चले गए।

संकलनकर्ता -सुधा भार्गव 



मंगलवार, 17 अप्रैल 2018

लघुकथाकार कुंअर बेचैन की लघुकथा || 21 ||

                   बबूल


     
       यह लघुकथा अपने कलेवर में बहुत कुछ समेटे हुए हैं।इसने सिद्ध कर दिया है कि साहस से परिपूर्ण रक्षा का कवच खुद नारी है । उसका साहस उसकी शक्ति है। आज भी पुजारी जैसे भेड़ियों की कमी नहीं जब तक नारी अपनी रक्षा के लिए खुद कटिबद्ध नहीं होगी तब तक इक्कीसवी सदी की नारी भी कहीं सुरक्षित नहीं ।
      
      रोज की तरह शाम को एक खास समय पर खेतों के किनारे से सटी  पगडंडी पर साइकिल दौड़ाते हुए खेड़ा गाँव के मंदिर के प्रौण पुजारी अचानक साइकिल रोककर  उससे उतरे और साइकिल को पगडंडी के किनारे खड़े बबूल के पेड़ से टिकाकर खेत के किनारे हँसिये से बबूल की दातौन को छीलती हुई जवान लच्छों के पास आकर खड़े हो गए, खूबसूरत लच्छों पर पुजारी की निगाह बहुत पहले से थी। आज एकांत पाकर उनके भीतर का भूखा भेड़िया जाग उठा।  
      वे आँखों में नाखून लेकर उसके पास आए और उसके उन्नत वक्ष पर हाथ फिराते बोले, “अरी तेरी अंगिया तो बीच से बहुत चिर गई है, इसे सी लेना ,या तू कहे तो कल तेरे लिए नई अंगिया ला दूँ।” 
     लच्छो ने अपने सीने पर नजर डाली। वाकई उसकी अंगिया फटी हुई थी और उसके वक्ष की गोलाइयाँ साफ चमक  रही थीं।
     लच्छो उन्हें छुपाते हुए बोली, पुजारी चाचा ,सुबह से शाम तक बाजार में बेचने के लिए बबूल की दातौन जो छीलती रहती हूँ सो किसी कांटे की करतूत रही होगी जिससे अंगिया फट गई---।” और ऐसा  कहकर वह लापरवाही से फिर अपने तेज हँसिये से बबूल की दातौन छीलने लगी।
      ----अगले दिन गन्ने के खेत में पुजारी की लाश मिली। लच्छो पुलिस की कस्टडी में थी। उसका बदन तार-तार था। चेहरे पर दांतों के निशान ,पर बदन पर नाखूनों की खरोंचें । बिखरे हुए बाल। लहूलुहान शरीर। तार-तार हुए कपड़े। ये सब चुप रहकर सारी कहानी कह रहे थे। पुलिस पूछताछ कर रही थी । लच्छो बोलती जा रही थी, “साहब बबूल को छीलकर दातौन बनाते है हम! बबूल के एक कांटे ने तो हमारी अंगिया ही फाड़ी थी, ये पापी तो हमारे अंग-अंग को तार-तार कर देना चाहता था।”
      फिर अपने गालों और शरीर के अन्य हिस्सों पर पुजारी के नाखून और दांतों के निशान दिखाकर बोली, “हरामजादा मुझे ही दातौन समझ रहा था।” फिर मुंह बिचककर बोली, “हम तो बबूल की दातौन बनाते ही हैं,सो हमने बबूल की नाई छील दिया स्साले को।”
     लच्छों की बेबाक बात सुनकर भीड़ में खड़े लोगों की घिग्गी बंध गई थी ।

संकलनकर्ता-सुधा भार्गव

बुधवार, 11 अप्रैल 2018

लघुकथाकार रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' की लघुकथा ॥ 20॥


अश्लीलता



      
      इस लघुकथा को पढ़कर अन्तर्मन हिल उठा। क्या इंसान इतना गिर गया है!मानसिक विकृति का शिकार सजीव -निर्जीव का अंतर भी भूल गया!  

      रामलाल की अगुआई में नग्न मूर्ति को तोड़ने के लिए जुट आई  भीड़ पुलिस ने किसी तरह खदेड़ दी थी, देवमणि की दुशिंचता व खिन्नता कम न हो सकी थी। क्या करे वह ?क्या पार्क से इस खूबसूरत मूर्ति को हटवा दे? रात-रात-भर जागकर  उसने अपनी आत्मा का सारा सौन्दर्य, अपनी कल्पनाओं को  एक-एक तराश इस मूर्ति के गढ्ने में लगा दिये।
      चाँद कब का निकल आया था। चाँदनी में नहाई मूर्ति को वह मुग्ध भाव से निहार रहा था। एक-एक करके सभी लोग जा चुके थे। उसका मन उठने को न हुआ। आज का सन्नाटा उसे और दिनों की तरह नहीं खल रहा था। वह अपने हाथों को अविश्वास से देखने लगा ,क्या इन्हीं हाथों ने इतनी मोहक मूर्ति गढ़ी है!
      उसे लगा जैसे मूर्ति उसकी ओर देखकर आत्मीय भाव से मुस्कुरा रही है।
      सामने वाली सड़क भी सुनसान हो चुकी थी। वह भारी मन से उठने को हुआ कि सामने से एक व्यक्ति आता दिखाई दिया । देवमणि वहाँ से हटकर एक पेड़ की ओट में बैठ गया।
      निकट आने पर पता चला ,वह व्यक्ति रामलाल था। देवमणि आशंकित हो उठा, लगता है यह इस समय मूर्ति तोड़ने आया है, लेकिन ---यह तो खाली हाथ है!
      वह मूर्ति के पास आ चुका था। देवमानि के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। रामलाल मूर्ति से पूरी तरह गुंथ चुका था और उसके हाथ –मूर्ति के सुडौल अंगों पर केंचुए की तरह रेंगने लगे थे।
समाप्त




मंगलवार, 10 अप्रैल 2018

लघुकथाकार रामेश्वर काम्बोज’हिमांशु’ की लघुकथा ॥ 19 ॥


     पिघलती हुई बर्फ



पति-पत्नी की मीठी नोंक-झोंक व प्रणय भाव की अभिव्यक्ति इस लघुकथा में बहुत सुंदर बन पड़ी है। 

वे दोनों इतनी ऊंची आवाजों में बोलने लगे ,जैसे अभी एक दूसरे का खून कर देंगे।
      मैं अब इस घर में एक पल नहीं रहूँगी। स्त्री चीखी-बहुत रह चुकी इस नरक में।`` क्रोध से उसके नथुने फड़क रहे थे, टांगें काँप रही थीं। आँखों से आँसू बहने लगे थे।
     “यह निर्णय तुम्हें बहत पहले कर लेना था,अल्पना!” पति ने घाव पर नमक छिड़का।
     “अभी कौन सी देर हो गई।``
     “जो देर हो गई है ,मैं उसका प्रायश्चित कर लूँगा।"वह एक- एक शब्द चबाकर बोला---।
      उसने सिगरेट सुलगाई । पैर मेज पर टिकाए। धुएँ के छल्ले अल्पना की ओर उड़ाकर लापरवाही से घूरने लगा।
      “तुमने कहा था न कि मेज पर पाँव टिकाकार नहीं बैठूँगा।"अल्पना ने आग्नेय दृष्टि से पति की ओर घूरा।
     “कहा था।"और उसने पैर नीचे उतार लिए।
     “और सिगरेट! इतनी खांसी उठती है फिर भी सिगरेट पीने से बाज नहीं आते ।"वह आगे बढ़कर पति के मुंह से सिगरेट झपटने को हुई तो उसने स्वयं ही सिगरेट जूते के नीचे मसल दी।
     “और कुछ !”वह गुर्राया।
     “हाँ-हाँ जो-जो भी मन में हो,तुम भी कह डालो।"वह अपने कपड़े अटैची में ठूँसती जा रही थी और सुबक रही थी।
      वह एकटक देखता रहा। चुपचाप। उसके होंठ कुछ कहने को फड़कने लगे।
       “क्या तुम मुझे कुछ भी नहीं कह सकते?” वह भरभरा उठी। शिकायती लहजे में बोली-“मैंने मेज से पाँव हटाने के लिए कहा,आपने हटा लिए। मैंने सिगरेट पीने से मना किया।आपने सिगरेट जूते के नीचे मसल दी।"
      “किसी की सुनो तो कोई कुछ कहे भी। तुमने सुनना सीखा ही नहीं। मैं कहकर और तूफान खड़ा करूँ?”
      “ठीक है। मैं जा रही हूँ।``वह भरे गले से बोली और पल्ले से आँखें पोंछने लगी।
     “इतनी आसानी से जाने दूंगा तुम्हें। ” पति ने आगे बढ़कर अटैची उसके हाथ से छीन ली      “जाओ खाना बनाओ,जल्दी। मुझे बहुत भूख लगी है।``
      अल्पना गीली आँखों से मुसकुराई और रसोईघर में चली गई
समाप्त





रविवार, 8 अप्रैल 2018

लघुकथाकार हरिशंकर परसाई और श्यामनंदन शास्त्री की लघुकथाएं 17,18


दो लघुकथाएं
संस्कृति //हरिशंकर परसाई

      भूखा  आदमी सड़क के किनारे कराह  रहा था । एक दयालु आदमी रोटी लेकर उसके पास पहुंचा  और दे ही रहा था कि  दूसरे आदमी ने उसका हाथ खींच लिया । यह आदमी बड़ा रंगीन था ।
पहले आदमी ने पूछा -"क्यों भाई भूखे को भोजन क्यों नहीं देने देते ।"

      रंगीन आदमी बोला -"ठहरों तुम इस प्रकार उसका हित नहीं कर सकते । तुम केवल उसके तन की भूख को ,समझ पाते हो ,मैं उसकी आत्मा की भूख जानता हूँ । देखते नहीं हो ,मनुष्य शरीर में पेट नीचे हैं और हृदय ऊपर।   हृदय की अधिक महत्ता है ।"
      पहला आदमी बोला --"लेकिन उसका हृदय पेट पर ही तो टिका है । अगर पेट में भोजन नहीं गया तो हृदय की टिक -टिक बंद हो जायेगी ।"
      रंगीन आदमी हंसा !फिर बोला -"देखो मैं बतलाता हूँ कि उसकी भूख कैसे बुझेगी ?"यह कहकर वह उस  भूखे के सामने बाँसुरी बजाने लगा ।
     दूसरे ने पूछा -"यह क्या कर रहे हो ?इससे क्या होगा ?"
      रंगीन आदमी बोला --"मैं उसे संस्कृति का राग सुना रहा हूँ । तुम्हारी रोटी  से तो एक दिन के लिए ही उसकी भूख भागेगी ,संस्कृति के राग से उसकी जनम  -जनम  की भूख भागेगी ।"
      वह फिर बाँसुरी बजाने लगा ।और तब वह भूखा  उठा । उसने बाँसुरी  झपटकर पास की नाली में फ़ेंक दी ।

धरती का काव्य /श्याम नन्दन शास्त्री

       कंधे पर हल धर किसान ने बैलों की रास संभाली । खेतों की ओर उसके पैर उठने ही वाले थे कि एक कवि आ पहुँचा।
       "किसान भैया !--कवि ने रुकने के स्वर में पुकारा --आओ कुछ क्षण बैठो । एक कविता सुनाऊँ ।"
       "कविता !"किसान अचकचाया जैसे उसने कूछ समझा ही नहीं ।
       "अरे काव्य !"कवि झुंझलाहट भरे स्वर में बोला ,'तुमने काव्य का नाम तक नहीं सुना ?अरे यह वही काव्य है जिसमें गुलाब के पौढ़ी झूमते हैं ,चन्दन की सुगंध वायुमंदक को तरोताजा बनाती है ,चाँदनी गाती है ,कल्पना की परियाँ नाचती  हैं ,नए  लोक बनते हैं ,मिलते हैं । और जानते हो ,इसमें हंसने वाले खेतों पर कभी पाला नहीं पड़ता । '
      कवि ने चमक भरी नजरों से किसान की ओर देखा । सुनकर वह विस्मय में डूब गया । आश्चर्य में गोते लगाते बोला -"तो क्या इससे पेट भी भरता है ?"
      "अरे 1पेट कैसे भरेगा ?कवि के कपोलों का ऊपरी भाग सिकुड़कर मुँदती आँखों के पास चला आया ,--यह तो कल्पना का काव्य है ।"
       सुनकर किसान मुस्कराया ,बैलों  की पूंछ हिलाई ,टिटकारी दी और आगे बढ़ गया ।
       "अरे सुनते तो जाओ । कवि ने चिल्लाकर पूछा --कहाँ चले ?"
      "धरती का काव्य लिखने ।" किसान का उत्तर था ।


लघुकथाकार भूपिंदर सिंह,ज्ञान प्रकाश विवेक ,व दलीपसिंह वासन की लघुकथाएं ॥14-16॥

  

लघुकथाएं जीवन मूल्यों की 
 इस संग्रह का प्रथम संस्करण फरवरी 2013 में प्रकाशित हुआ है ।
सम्पादन सुकेश साहनी रामेश्वर काम्बोजहिमांशु ने किया है ।
प्रकाशक –हिन्दी साहित्य निकेतन
16साहित्य विहार
बिजनौर (उ प्र )246701
मूल्य-पचास रुपए मात्र 

       
यह निर्विवाद सत्य है कि  मनुष्य अपने में खोता जा रहा है और  स्वयंकेन्द्रित होने के कारण मानव मूल्य कगार पर खड़े सिसक रहे हैं । नैतिकता विहीन भटकन को  राह पर लाने के लिए इस संग्रह की लघुकथाएं उपयोगी ही नहीं अपितु बेहतर व स्वस्थ  समाज के सृजन की पृष्ठ भूमि तैयार करती हैं ।  इस पुस्तक में पृष्ठ 4-अपनी बात में ठीक ही कहा गया है –ये लघु कथाएँ सामाजिक प्रदूषण में प्राण वायु का काम करेंगी ।
      96 पृष्ठों के इस संग्रह में अनेक धुरंधर लघुकथाकारों की रचनाएं हैं जो सूक्ष्म होते हुये भी अपनी  सूक्षमता के कणों से संवेदना  जगाकर हृदय को बेचैन  कर देती हैं ।

कथा संग्रह से चुनी तीन लघुकथाएं पढ़िये । 

1--पहुँचा हुआ फकीर /भूपिंदर सिंह

एक कमरा कह लो ,या छोटा घर ।
वहीं सास ससुर ,वहीं पर बड़ी नन्द ,वहाँ ही छोटा देवर और एक तरफ पति –पत्नी की दो चारपाइयाँ।
बहू को दौरा पड़ने लगा । पलों में ही हाथ –पैर ढीले हो जाते । हाथों की उंगलियां मुड़ जातीं । ओठों का रंग नीला पड़ जाता । हकीमों की जड़ी –बूटियाँ देखीं ,डाक्टरों के टीके भी कराये ,पर फायदा कुछ न हुआ ।
       किसी ने एक फकीर के बारे में बताया । सात मील पर उसका डेरा था । पति ने उसे साइकिल पर बैठाया और चल दिया । रास्ते में एक बगीचा आया । हैंडल चुभने का बहाना लगाकर पत्नी उतर गई । दोनों बैठ गये , जी भरकर बातें  कीं । फिर उनकी आत्माएं एक हो गईं । दोनों को रोकने –टोकने वाला कोई न था ,जो मन में आया किया ।
       "आज की यात्रा से फूल सा हल्का महसूस कर रही हूँ ,बाबा जी ,जैसे कि कोई रोग ही न हो। " डेरे पर पहुँचकर उसने कहा ।
      "तो हर बुधवार ,बीस चौकियाँ भरो बेटी । दवा –दारू की जरूरत नहीं । महाराज भली करेंगे।''  

2--जेबकतरा /ज्ञान प्रकाश विवेक

      बस से उतरकर जेब में हाथ डाला । मैं चौंक पड़ा। जेब कट चुकी थी । जेब में था भी क्या ?कुल नौ रुपए और एक खत ,जो मैंने अपनी माँ को लिखा था कि मेरी नौकरी छूट गई है । अभी पैसे नहीं भेज पाऊँगा । तीन दिनों में वह पोस्टकार्ड जेब में पड़ा था। पोस्ट करने को मन ही नहीं कर रहा था।  

      नौ रुपए जा चुके थे । यूं नौ रुपये कोई बड़ी बात नहीं थी ,लेकिन जिसकी नौकरी छूट चुकी हो । उसके लिए नौ रुपए नौ सौ से कम नहीं होते । 
      कूछ दिन गुजरे ,माँ का खत मिला ,पढ़ने से पूर्व मैं  सहम गया ,जरूर पैसे भेजने का लिखा होगा ,लेकिन खत पढ़कर मैं हैरान रह गया । माँ ने  लिखा था ,बेटा ,तेरा पचास रुपए का भेजा हुआ मनीआर्डर मिल गया है । तू कितना अच्छा है रे !पैसे भेजने में कभी लापरवाही नहीं बरतता ।
मैं इसी उधेड्बुन में लग गया कि आखिर माँ को मनीआर्डर किसने भेजा होगा ?
      कुछ देर बाद एक और पत्र मिला । चंद लाइनें थीं ,आड़ी –तिरछी । बड़ी मुश्किल से पत्र पढ़ पाया । लिखा था ,"भाई नौ रुपए तुम्हारे और इकतालीस रुपए अपनी ओर से मिलाकर ,मैंने तुम्हारी माँ को मनीआर्डर भेज दिया है । फिकर न करना । माँ तो सबकी एक –जैसी होती है न ! वह क्यों भूखी रहे ?तुम्हारा जेबकतरा ।"

3--रिश्ते का नामकरण /दलीपसिंह वासन 

      उजाड़ से रेलवे स्टेशन पर अकेली बैठी लड़की को मैंने पूछा तो उसने बताया कि वह अध्यापिका बन कर आई है । रात को स्टेशन पर ही रहेगी । प्रात;वहीं से ड्यूटी पर उपस्थित होगी । मैं गाँव में अध्यापक लगा हुआ था ।पहले घट चुकी एक –दो घटनाओं के बारे में मैंने उसे जानकारी दी ।

      "आपका रात को यहाँ ठहरना उचित नहीं है । आप मेरे साथ चलें ,मैं किसी के घर में आपके ठहर  ने का प्रबंध कर देता हूँ ।"जब हम गाँव से गुजर रहे थे तो मैंने इशारा कर बताया –मैं इस  चौबारे में रहता हूँ ।
      "अटैची जमीन पर रख वह बोली –थोड़ी देर आपके कमरे में ही ठहर जाते हैं । मैं हाथ –मुँह धोकर कपड़े बदल लूँगी ।"

बिना किसी वार्तालाप के हम दोनों  कमरे में आ गए ।
      "आपके साथ और कौन रहता है ?"
      "मैं अकेला ही रहता हूँ ।"
      "बिस्तर तो दो लगे हुये हैं ।"
      "कभी –कभी मेरी  माँ आ जाती हैं ।"
      गुसलखाने में जाकर उसने मुंह –हाथ धोये । वस्त्र बदले । इस दौरान मैं दो कप चाय बना लाया । 
      "आपने रसोई भी रखी हुई है ।"
      "यहाँ कौन सा होटल है !"
      "फिर तो खाना भी यहीं खाऊँगी ।"
      "बातों –बातों में रात बहुत गुजर गई थी और वह माँ वाले बिस्तर पर  लेट भी गई थी।"

      मैं सोने का बहुत प्रयास कर रहा था ,लेकिन नींद नहीं आ रही थी । मैं कई बार उठकर उसकी चारपाई तक गया था । उस पर हैरान था । मुझ में मर्द जाग रहा था ,परंतु उसमें बसी औरत गहरी नींद सोई थी ।
      मैं सीढ़ियाँ चढ़कर छत पर जाकर टहलने लग गया । कुछ देर बाद वह भी छत पर आ गई और चुपचाप टहलने लगी ।
      "जाओ सो जाओ ,सुबह आपने ड्यूटी पर हाजिरी देनी है ।" मैंने कहा ।
      "आप सोये नहीं ?"
      "मैं बहुत देर तक सोया रहा हूँ ।"
      "झूठ।"
      वह बिलकुल मेरे सामने आ खड़ी हुई ,"अगर मैं आपकी छोटी बहन होती तो आपको उनींदे नहीं रहना था ।"
      "नहीं –नहीं ,ऐसी कोई बात नहीं ।" और मैंने उसके सिर पर हाथ फेर दिया। 
समाप्त 

पंजाबी लघुकथाकार जसबीर बेदर्द लंगेरी , डॉ कर्मजीत सिंह नडाला, सतिपाल खुल्लर की लघुकथाएं ॥11-13॥


विगत दशक की पंजाबी लघुकथाएँ-संग्रह 

       प्रथम बार मुझे  पंजाबी मिन्नी कहानियों (लघुकथा )का हिन्दी में अनुवाद किया हुआ
 तीसरा संग्रह-'विगत दशक  की पंजाबी लघुकथाएँ'  पढ़ने का अवसर मिला ।इसे मुझे रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु 'ने भेंट किया था ।
  
इसके सम्पादक श्याम सुन्दरअग्रवाल तथा डॉ श्याम सुन्दर दीप्ति हैं ।

प्रकाशक है -

अयन प्रकाशन

1/20 महरौली ,नई दिल्ली - 1100030

मूल्य -260.00 रुपये 

दूरभाष :26645812/9818988613

e.mail:ayanprakashan@rediffmail.com 



       इस संग्रह में जनजीवन से जुड़ी विविध विषयों  पर लिखी  लघुकथाएं  जिज्ञासा के पुल पर रुचिता लाते हुए संवेदना से सारोवार, दिल में घर कर लेती हैं । अधिकांशत मिन्नी कथाओं के  पात्र रोने झींकने व् सिसकने में विशवास नहीं  करते  बल्कि समस्या का समाधान ढूँढ़ते हुए जीने की इच्छा रखते हैं --वे निराशावादी न होकर उनमें  कुछ कर गुजरने की कशिश  है ।

       सकारात्मक दृष्टिकोण से  इनमें चेतना के स्वर सुनाई देते है चाहे वह नारीमंच हो या निम्न वर्ग ,रिश्तों का अटूट बंधन हो या उनकी टूटन -- अनेक लघुकथाओं में एक बेहतर समाज के दर्शन होते हैं और भविष्य के प्रति हम आशान्वित हो उठते हैं ।  

संग्रह से यहाँ तीन लघुकथाएँ उद्घृत की जा रही हैं जो अपने में विशेष हैं ।  


1--भूकंप/ डॉ कर्मजीत सिंह नडाला

        बेटा सोलह वर्ष का हुआ तो वह उसे भी साथ ले जाने लगा ।
        "कैसे हाथ –पाँव टेढ़े –मेढ़े करके चौक के कोने में  बैठना है,आदमी देख कैसे ढीला सा मुंह बनाना है।   लोगों  को बुद्धू बनाने के लिए द्या का पात्र बनकर कैसे अपनी ओर आकर्षित करना है।  ऐसे बन जाओ कि सामने से गुजर रहे आदमी का दिल पिघल जाये और सिक्का उछलकर तुम्हारे कटोरे में आ गिरे।"
        वह सीखता रहा और जैसा पिता कहता ,वैसा बनने की कोशिश भी करता  फिर एक दिन पिता ने पुत्र से कहा –"जा अब तू खुद ही भीख मांगा कर।"
        पुत्र शाम को घर लौटा । आते ही उसने अपनी जेब से रुपए निकालकर पिता की ओर बढ़ाए –"ले बापू ,मेरी पहली कमाई ---।"
       "हैं !कंजर !पहले दिन ही सौ रुपये !इतने तो कभी मैं आज तक कमाकर नहीं ला सका ,तुझे कहाँ से मिल गए ?"
       "बस ऐसे ही बापू ,मैं तुझसे आगे निकल गया ।"
       "अरे कहीं किसी की जेब तो नहीं काट ली।" 
        "नहीं,बिलकुल नहीं।"
      "अरे आजकल तो लोग बड़ी फटकार लगाकर भी आठ आने –रुपया बड़ी मुश्किल से देते हैं—तुझ पर किस देवता की मेहर हो गई ?"
       "बापू ,अगर ढंग से मांगो तो लोग आप ही खुश होकर पैसे दे देते हैं ।"
       "तू कौन से नए ढंग की बात करता है ,कंजर ?पहेलियाँ न बुझा । पुलिस की मार खुद भी खाएगा और हमें भी मरवाएगा । बेटा अगर भीख मांग कर गुजारा हो जाए तो चोरी चकारी की क्या जरूरत है ?पल भर की आँखों की शर्म है –हमारे पुरखे भी  यही कुछ करते रहे हैं ,हमें भी यही करना है । हमारी नसों में  भिखारियों वाला खानदानी खून है ---हमारा भी यही रोजगार है ,यही कारोबार है । ये खानदानी रिवायतें कभी बदली हैं?तू आदमी बन जा ---।"
      "बापू आदमी बन गया हूँ ,तभी कह रहा हूँ । मैंने पुरानी रिवायतें  तोड़ दी हैं । मैं आज राज मिस्त्री के साथ दिहाड़ी करके आया हूँ । एक कॉलोनी में किसी का मकान बन रहा है । उन्होंने  शाम को सौ रुपये  दिये । सरदार कह रहा था ,रोज आ जा या कर ,सौ रुपए मिल जाया करेंगे --।"
        पिता हैरान हुआ । कभी बेटे की ओर देखता ,कभी रुपयों की ओर । यह लड़का कैसी बातें कर रहा है। आज उसकी खानदानी रियासत में भूकंप  आ गया था ,जिसने सब कुछ उलट -पुलट दिया था ।

2-- बदला हुआ स्वर/सतिपाल खुल्लर

        बहू उसके आगे रोटी की थाली और पानी का गिलास रख गई थी । वह चुपचाप रोटी खाने लगा ।
        'यह भी कोई जिंदगी है !पिछले कई वर्षों से ऐसा ही चल रहा है । घर में कोई समारोह हो ,उससे पूछा तक नहीं जाता । सभी को चाय –पानी पिलाने के बाद उसकी बारी आती है । रोटी खाते हुये वह सोच रहा था । उसे लगा ,वह तो जैसे घर का सदस्य ही नहीं । फिर उसे अपने पिता की याद आई जो सौ वर्ष की उम्र भोग कर मरा था । कितना दबदबा था उसका घर में । वह अपने पिता का ध्यान भी तो बहुत रखता था । लेकिन उसकी पत्नी और बच्चे  उसकी सेवा से बहुत दुखी थे ।कभी –कभी उसे लगता कि अपनी इस अवस्था के लिए वह खुद ही जिम्मेदार है ।
       "मैंने इस सब्जी से रोटी नहीं खानी । मेरे लिए कोई और सब्जी बनाओ।" गाजर की सब्जी से उसके पिता को जैसे चिढ़ थी ।"
      "बापू ,ऐसे न किया कर ।" उस दिन उसने जैसे अपनी बेबसी जाहिर की थी।
      "ये मेरा पाठ करने वाला मोढ़ा और गुटका है ,उन्हें यहाँ से कोई  न हिलाये । मैंने सौ बार कहा है पर किसी पर कोई असर ही नहीं होता ।"
      "बापू ,धीरे बोल ---।"
       "मुझे किसी का डर है ?यह मेरा घर है ,मैंने इसे अपने इन हाथों से बनाया है ।" बापू क्रोध में और भी ऊंचे स्वर में बोलता ।
      "यह बात तो ठीक है ।" पर उसे लगता कि बापू  व्यर्थ ही क्लेश किए रखता है ।
       इस तरह की बातें घर में नित्य  ही होती रहती थीं । तब वह  सोचता –"मैं यह सब नहीं करूंगा । जो पकाया ,बनाया हुआ होगा ,वही खा लिया करूंगा । चारपाई पर बैठा राम –राम करता रहूँगा । जिंदगी का क्या है ,आदमी को जीने का ढंग आना चाहिए ।"
       पर अब उसे लगने लगा कि वह तो बस रोटी खाने का ही साझेदार है । घर में उसका कोई अस्तित्व ही नहीं । आज रोटी खाते हुये वह बापू को याद कर रहा था । बापू ठीक ही तो कहता था –आदमी को घर में अपना अस्तित्व तो बनाकर रखना ही चाहिए । कोई काम तो हो। भोजन करने के बाद आम दिनों के विपरीत वह ज़ोर से खांसा और अपने पोते को आवाज दी ,जैसे बापू उसके बेटे को बुलाया करता था । आवाज सुनकर घर वालों के कान खड़े हो गए ।
       "हैं ---दादा जी !यह तो दादाजी की आवाज है ।" उसका अपना बेटा ही अपनी माँ की ओर देखकर बोला ।
        इससे पहले वह कभी ऊंची आवाज में नहीं बोला था । उसकी पत्नी भागकर आई । फल भर के लिए उसे लगा ,जैसे उसका पति नहीं ,उसका ससुर उसके सामने बैठा हो ।
       "सुनो ,आगे से सब्जी मुझ से पूछकर बनाया करो ।" वह अपनी बहू को सुनाता हुआ बोला।   


3--मंदिर /जसबीर बेदर्द लंगेरी

        सुरिंदर ने कोठी बनवाने से पहले अपने आर्कीटेक्ट दोस्त को घर बुलाया और कहा -"यार विजय! कोठी बनानी है ,एक अच्छा सा नक्शा बनादे और मुझे समझा भी दे ।" 
        "सुरिंदर ,मेरे पास कई नक़्शे बने पड़े  हैं …यह देख ,यह अभी बनाया है । इसमें सब कुछ अपनी जगह पर पूरी तरह फिट है ।।पर एक चीज फालतू है , आपके काम की नहीं ---यह छोटा सा पूजा वाला कमरा ,क्योंकि आप हुए तर्क शील।" 
       "नहीं यार ,यह कमरा तो बहुत जरूरी है । यह तो एक साइड पर  है और छोटा भी । हमें तो यह कमरा बड़ा चाहिए ,साथ में हवादार भी । इसमें हमने भी मूर्ति रखनी है ,वह भी जीती जागती ,जिसके हर समय दर्शन होते रहें ।" सुरिंदर बोला । 
       "जीती जागती मूर्ति !वह कौन सी ?"विजय ने हैरान होते हुए कहा  । 
        "यह देख हमारे भगवान् की मूर्ति ।" सुरिंदर ने सोफे पर साफ- सुथरी वस्त्रों में बैठी अपनी माँ के गले में पीछे से बांह डालते हुए कहा । 
       "बेटा विजय ,समय चाहे बदल गया ,फिर भी माँओं ने सरवन बेटों को पैदा करना बंद नहीं किया है।"  माँ ने भावुक होते हुए कहा।  
      "वाह कमाल है भई !जिस घर में बिजुर्गों का इतना सम्मान हो ,वहां मंदिर बनाने की क्या जरूरत है। वह तो घर ही मंदिर है ---ठीक है ,मैं सब समझ  गया । अच्छा मैं कल आऊंगा ।" 
इतना कह विजय उठने लगा तो सुरिंदर की पत्नी चाय और बिस्कुट मेज पर  रखते हुए बोली --          "भाई  सा --ब !मंदिर से खाली हाथ नहीं जाते । यह लो प्रसाद ।"  

समाप्त