पुल
महावीर
राजी
महावीर राजी
का जन्म कलकत्ते में हुआ पर आसनसोल में रहते हैं।ये एक हिन्दी लेखक हैं। इनकी यह लघुकथा
जनचेतना का प्रगतिशील कथा-मासिक हंस अंक मई 2013 प्रकाशित हुई ।
‘पुल’ लघुकथा नारी सशक्तिकरण पर एक तीखा व्यंग है। कौन कहेगा वह स्वतंत्र है,अपने जीवन के निर्णय खुद ले सकती है।
इक्कीसवीं सदी की नारी उतनी ही मजबूर है जितनी
वह पहले थी। यह यथार्थ इस लघुकथा में पूर्णरूप
से उभर कर आया है, जब ‘उन्होंने संकेत में
अपनी पत्नी को आदेश दिया –“पुल बन जाओ- - -। ।”पत्नी की गर्दन इंकार में
हिल गई। उनकी आँखों में बांसनुमा गुर्राहट
भर आई---“जैसा कहा,करो!” पत्नी सहम उठी।‘ आखिर पुरुष सत्ता के सामने नारी ने घुटने टेक ही दिये।
ऑटो से स्टेशन के सामने उतर कर
ज्यों ही बुकिंग काउंटरों की तरफ बढ़े कि आंखें फटी की फटी रह गई। बुकिंग काउंटरों
के सामने का विशाल कक्ष यात्रियों की भीड़ से ठस्सम-ठस्स था। सिर्फ नरमुंड ही
नरमुंड! सिर्फ दहयष्टियाँ ही दहयष्टियाँ !पांचों काउंटरों के सामने लोगों का अव्यवस्थित हुजूम! धक्कम- धुक्की! ठेलमठेल! बेशक अभी त्यौहारों तथा शादियों का
सीजन चल रहा था,भीड़ होनी ही थी। पर इस कदर रौद्र भीड़ की तो
कल्पना भी नहीं की थी। अब यात्रा टाली भी नहीं जा सकती थी और जाना एकदम जरूरी था।
उन्हें
लगा जहां वे खड़े हैं,वहाँ से टिकट-खिड़की के बीच की जगह
में विशाल सागर लहरा रहा है। लंबी -लंबी तरंगों वाला हाहाकार करता पारावार! काउंटर
तक पहुंचने के लिए इस पारावार को पार करना होगा और पार करने के लिए चाहिए एक पुल! ठीक
वैसा ही जैसा दमकल वालों के पास हुआ करता है ,बटन दबाया और ‘पुल’ खुलकर लंबा होता भीड़ में सुराख बनाता हुआ काउंटर
तक पहुँच जाता। काश!
उन्होंने
हताशा से पत्नी की ओर ताका। गोरे मुख पर मेकअप की गमकती परत के पीछे से पसीने की नन्हीं
बूंदें फूट आई थीं। ये बूंदें सौंदर्य में चार चाँद लगा रही थीं। अचानक आँखों के आगे
एक झपाका हुआ और मन एक अद्भुत किलकारी से किलक उठा।
उन्होंने
संकेत में अपनी पत्नी को आदेश दिया –“पुल बन जाओ- - - ।”पत्नी की गर्दन इंकार में हिल गई। उनकी आँखों में बांसनुमा गुर्राहट भर आई---“जैसा कहा,करो!” पत्नी सहम उठी। भीत नजरों से एकबार विशाल भीड़ को निहारा। फिर शनै:-शनै:
पुल में रूपांतरित होता भीड़ में सुराख बनाकर खिड़की की ओर बढ़ने की प्रक्रिया में लग गई।
अधिकतम
पाँच मिनट की कवायद! उन्होंने सिगरेट का आखिरी कश लिया ही था कि पुल टिकटें लिए लौट
आया। बस- - -सिर्फ बिंदी अपनी जगह से सरक गई थी, जूड़ा खुल जाने
से उसमें गूँथी बेला की वेणी कहीं गिर गई थी,आँचल ढलक जाने से
सीना बेपर्द हो उठा था और स्लीबलेस ब्लाउज के बाहर निकली कदली-बांह पर स्पर्श सुख के
लिए किसी मनचले ने चिकाटी काट ली थी।
इन सबसे
असंपृक्त वे टिकट पाकर विजयोल्लास से भर उठे। पुल ‘पुनमूर्षको
भव’ की तर्ज पर फिर से पत्नी बनने की प्रक्रिया मैं लग चुका था।
संपर्क -द्वारा प्रिंस ,केडिया मार्केट,आसनसोल-713 301(प॰ बंगाल )
मोबाइल-098321 94614
mahabiirraji@gmail॰com
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