रेत का
पर्दा
तदभव
पत्रिका अंक 8 अक्तूबर 2002 में
प्रतिष्ठित कहानीकार रवीन्द्र वर्मा की पाँच कहानियाँ प्रकाशित हुई थीं । उनमें से एक रेत
का पर्दा है। इसको कहानी तो कहा है पर अपने शिल्प में यह लघुकथा ही है ।
हृदय की व्यथा और घुटन को बड़े कलात्मक रूप में व्यक्त किया है । इसलिए यह कुछ अलग
सी लगती है।
दीनदयाल
की सुबह की चाय का टाइम आठ बजे था। जब वे नौ बजे तक हॉल में नहीं आए ,तो बहू ने अंदर जाकर कमरे में देखा वे चित्त लेटे थे जैसे किसी समाधि में
हों। “बाबूजी,बाबूजी” जयंती ने पुकारा। शरीर में कोई जुंबिश
नहीं हुई। फिर जयंती ने शरीर का हाथ हिलाया। हाथ हिला जैसे कोई लकड़ी हिली हो।जयंती
ने शरीर टटोला जिस तरफ दिल था। वह भागती हुई हॉल में गई। फोन किया। तुरंत नीचे की
मंजिल से आकर डॉक्टर मेहता ने मुआयना किया
और दीनदयाल को मृत घोषित कर दिया।
जयंती
चीखी।
“मगर क्यों?”दफ्तर के लिए तैयार खड़े किशन ने हैरानी से कहा, “वे भले
चंगे सोये थे।”
“इस उम्र
में कुछ भी हो सकता है।” डॉक्टर ने कहा, “दिल का दौरा भी। ”
“मगर उनको
दिल की कोई बीमारी नहीं थी।”
‘दिल यूं ही रुक सकता है---अचानक थक कर।”
“मगर कोई
वजह तो हो?”किशन ने जिद की।
डॉक्टर
ने कुछ खीजकर कहा,”वजह जानने के लिए पोस्टमार्टम कराना
पड़ेगा।”
किशन सोच
में पड़ गया । उसने कुछ कहा नहीं। सोचा जरूर कि पोस्टमार्टम तो हत्या या अत्महत्या की
वजह जानने के लिए होता है।
जब अर्थी
उठी तो बबलू बिलख –बिलख कर रोया। वह यह कहते हुए माँ से लिपटा कि दादाजी क्यों जा रहे
हैं,उसे क्यों रोज की तरह साथ नहीं ले जाते? कल भी नहीं ले
गए थे।
कल असल
में दादाजी ने बबलू से बहुत कम बात की थी। खाना खाते वक्त वह दोपहर में मेज पर साथ बैठा तो ‘हाँ’ ‘ना’ में कुछ कहा था।वे बाजार अकेले ही चले गए थे। कल सुबह बबलू का अंग्रेज़ी दिन
शुरू हुआ था।उसे तीन माह बाद कोनवेंट ऑफ जीजस एंड मेरी में प्रवेश के लिए लिखित और
मौखिक परीक्षा देनी थी। इसलिए जयंती और किशन ने तय किया था कि अभ्यास के लिए अब घर
में बबलू से अँग्रेजी में ही वार्तालाप होगा। उनका कहना था कि वह तभी कुछ सीख सकेगा
और बोलने का आत्मविश्वास अर्जित कर सकेगा। जयंती फर्राटे से अँग्रेजी बोलती थी। उसे
बहुत बुरा लगा था जब परसों मिसेज डीसूजा अपने दोनों बच्चों के साथ मिलने आई थीं और
उन्होंने अपने दोनों बच्चों से कहा था कि बबलू से हिन्दी में बात करो उसे अँग्रेजी
नहीं आती। यह उन्होंने अँग्रेजी में कहा था जिसे जयंती ने सुना था। यह संयोग ही था
कि तीन माह बाद बबलू को प्रवेश परीक्षा में बैठना था। उसी रात जयंती और किशन की मंत्रणा
के बाद कल सुबह से घर में अँग्रेजी का शाश्वत पीरियड लगने का ऐलान हो गया था।
दीनदयाल
सकते में आ गए थे।
वे कल अनमने
से उठे थे। पार्क में उगते सूरज की किरणों के साथ घूमते हुए वे पेड़ों की पत्तियों को
घूरते रहे थे। उन्होंने हर दूसरी झाड़ी से पत्ती नोच ली थी। पार्क की पगडंडी पर कई बार
जूते से ठोकर मारी थी। जब धूल सूर्य की किरणों में चमकती तो उन्हें अच्छा लगता। फिर वे थककर बेंच पर बैठ गए
थे और बैठे रह गए थे। कितनी देर? उन्हें पता ही नहीं चला था। जब
धूप बेंच तक आ गई और उनकी आँखें चौंधियायी , तब उन्हें पता चला।
रोज की
तरह कल सुबह उन्होंने पार्क से लौटकर बबलू के कमरे में नहीं झाँका था। न उसे सोया जानकर
अखबार पढ़ते हुए उसके जागने का इंतजार किया था। बल्कि उन्हें आश्चर्य हुआ था कि उन्होंने
अखबार से आँखें नहीं उठाईं जब बबलू हॉल में आया। कोई और दिन होता तो अखबार फेंककर वे
बबलू को बाहों में उठा लेते और चीखते-“आ जा मेरे राजा!”
बबलू कुछ देर उनके आसपास घूमता रहा, फिर अंदर चला गया था जहां से उसके रोने की आवाज आई थी ।
वे तब
भी अंदर उसे गोद में लेकर घुमाने ले जाने नहीं गए थे।
दोपहर
तक उनकी समझ में आ गया था कि उनके पैर उन्हें वहाँ नहीं ले जाना चाहते थे जहां बबलू
था। जब बबलू वहाँ आ जाता जहां वे थे,तो वे ‘यस’ ‘नो’ करने लगते-ज़्यादातर “नो”। उन्हों ने कभी अपने बच्चों
से अँग्रेजी में बातें नहीं की थीं। अँग्रेजी में उन्होंने सिर्फ अपने अफसर या मातहतों
से बात की थी। अब जब वे कभी बहुत क्रुद्ध होते तो अँग्रेजी में बड़बड़ाने लगते थे। बबलू
से अँग्रेजी में बात करने का मतलब उससे क्रुद्ध होना था।
वे बबलू
से क्रुद्ध नहीं हो सकते थे।
कल दिनभर
उनके चारों ओर घर में अदृश्य रेत उड़ती रही थी जैसे घर घर न हो रेगिस्तान हो। रात को
उन्होंने रेगिस्तान का सपना देखा था जहां गरम हवाओं के चक्रवात थे और उनके बीच रेत
के पर्दे उड़ रहे थे। उनकी अंतिम स्मृति रेत का एक काँपता पर्दा थी ,जिसके पीछे उन्होंने अपने को खोटते हुए देखा था। उन्हें खुद मालूम नहीं था
कि वे उस क्षण जाग रहे थे या सपना देख रहे थे।
किशन को
कभी पता नहीं चला कि पिता देह छोड़कर क्यों चले गए।
संकलनकर्ता -सुधा भार्गव
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