तूलिकासदन

रविवार, 8 अप्रैल 2018

लघुकथाकार एन ॰उन्नी ॥ 5-7॥



संकलन -मलयालम की चर्चित लघुकथाएँ 
  तथा           
मलयालम कथाकार एन.उन्नी की तीन लघुकथाएं

मैं कुछ  वर्ष पहले बलराम अग्रवाल जी के निवास स्थान दिल्ली गई थी । वहाँ मुझे यह संकलन  "मलयालम की चर्चित  लघुकथाएं " प्राप्त हुआ जिसके संपादक वे स्वयं हैं ।



प्रकाशक-शुभम प्रकाशन,एन-10,उलधनपुर,नवीन शाहदरा,दिल्ली-110032
,मूल्य 150 रूपये
.
 इसमें 56 मलयालम कथाकारों की 81चुनिन्दा लघुकथाएं हैं । विभिन्न विषयों पर आधारित कुछ लघुकथाएं दिल को छूती हुईं कुछ देर को वहीं ठहर जाती हैं तो कुछ ताजिंदगी के लिए मानस पटल पर छा जाती हैं ।

 इस प्रकार की अनुवादित रचनाओं को पढ़ने से अन्य भारतीय भाषाओं से जुड़ने-जुड़ाने का  सुनहरा मौका मिला है ।

मलयालम के वरिष्ठ कथाकार एन.उन्नी की प्रभावपूर्ण  तीन लघुकथाएं इसी संकलन से प्रस्तुत की जा रही हैं । 

|1| कबूतरों से भी खतरा है

मेरे पिता जी ने भी कबूतर पाले थे । कबूतर पालना उनके लिए टाइम पास करने का साधन नहीं था । वे सचमुच कबूतरों से प्यार करते थे । उनका नहलाना –धुलाना ,समय-समय पर दाना चुगाना ,उनसे बातें करना आदि कार्यों में  पिता जी समर्पित थे । पिता जी के चारों तरफ कबूतर नृत्य करते थे । धीरे –धीरे उड़कर पिता जी को हवा देते थे ।

एक दिन ऊपर उड़ा  एक कबूतर घर के ऊपर चक्कर लगा कर कहीं उड़ गया । पिता जी ने कबूतर की बोली बोलकर घर के चारों तरफ चक्कर काटे ,लेकिन कबूतर नहीं मिला । पिता जी पागल से हो गए । खाना नहीं खाया  और रात भर सोये भी नहीं । दूसरे दिन सुबह बेचैनी से पिता जी फिर मोहल्ले के चक्कर काटने लगे । थके –भूखे कबूतर जी वापस घर को लौटे । पिता जी खुश तो थे ,लेकिन इस खुशी में  एक असपष्ट क्रूरता भी निहित थी । पिता जी ने उस कबूतर  के पंख काट दिये । उसके लिए एक जीवन साथी को भी लेकर आए थे ।लेकिन फिर पिता जी औए कबूतरों का इतना मधुर संबंध नहीं रहा ।

कबूतरी अंडे देने लगी । उनसे बच्चे निकले ,बड़े होने लगे । बच्चे धीरे –धीरे उड़ने लगे तो बड़े कबूतर ने उन्हें क्रोध से देखा ,मगर वह कुछ बोला नहीं,क्योंकि कबूतर को मालूम था कि उसकी भाषा पिता जी समझने लगे हैं । पिता जी भी कबूतर के व्यवहार से सावधान हो गए । शाम को कबूतरों को पिंजरे में बंद करके पिताजी बेचैन हो रहे थे । वे पिंजरे के बाहर कुशल जासूस की तरह निश्चल खड़े अंदर की बातचीत ध्यान से सुन रहे थे । पिता जी के चेहरे के हाव –भावों से मुझे लगा कि कोई गंभीर बात हो रही है ।

बड़ा कबूतर बच्चों को सावधान कर रहा था –
-बेटे,तुम उस आदमी के सामने कभी भी उड़ने का प्रयास नहीं करना । वह तुम्हारे पंख काट देगा । तुम्हें मालूम है ,बाहर की दुनिया कितनी सुंदर और असीम है । एक बार मैंने भी देखी थी । अनंत विशाल ,रंग –बिरंगे आकाश में मैं खो गया था  ।लौटने की इच्छा मुझे कतई नहीं थी ,लेकिन भूख-प्यास के कारण मुझे लौटना पड़ा । बाहर से दाना –पानी जुटाने की जानकारी मुझे उस समय नहीं थी लेकिन बाद में मालूम पड़ा कि बाहर की आजाद दुनिया में  हम जातों का झुंड है । उनके साथ मिलकर मैं भी भूख –प्यास से जूझ सकता था ।
-पिता कबूतर की व्यथा को देख सुनकर बच्चों  ने कहा –अब तो आपके पंख बड़े हैं ,आप उड़ते क्यों नहीं ?
-अब मेरा क्या ?तुम्हारे बड़े होने का इंतजार कर रहा था मैं ---। अब हम साथ उड़ेंगे । अपनी जैसी कमजोरियों से  तुम्हें बचाना भी तो है--- ।

मुझे लगा कि पिता जी भयभीत हो उठे हैं । दूसरे दिन सुबह होते ही पिताजी ने पिंजरा खोला और सभी कबूतरों को आकाश में  उड़ा दिया तो मैंने पिता जी से पूछा –
-आपने यह क्या किया पिताजी ?सारे कबूतरों को उड़ा दिया --।
पिता जी ने बोझिल स्वर में कहा –बेटे जब प्रजा आजादी की तीव्र इच्छा से जाग उठती है तो बड़े से बड़ा तानाशाह भी घुटने टेकने को मजबूर हो जाता है । फिर तुम्हारा पिता तो.... |


|2|सर्कस

पड़वा का पर्व था । सभी जानवरों को अच्छी तरह रंगा देखकर संतुष्ट ठाकुर गुरुदयाल को लगा बंधुआ मजदूरों को भी आज कुछ रियायत देनी चाहिए । ठाकुर के अधीन तीस चालीस मजदूर बंधक थे । ठाकुर ने मजदूरों के मुखिया को बुलाकर  कुछ रुपए दिये और कहा –आज तुम लोगों की छुट्टी । घूम –फिर आओ । एक –एक धोती भी सबको दिला देना ।

पहले तो ठाकुर की बातें मुखिया को अविश्वसनीय लगीं । बाद में याद आया कि आज  जानवरों का त्यौहार है । मुखिया ने मजदूरों को एकत्रित किया और सुखद समाचार सुनाया ।,लेकिन छुट्टी कैसे मनाएँ ?यह किसी को भी नहीं सूझा । आखिर मुखिया ने सुझाया –चलो ,बाहर चलते हैं ,वहाँ  सर्कस चल रहा है ।

वे सर्कस देखने चले गए । सर्कस सबको अच्छा लगा ,लेकिन  मनोरंजक होंने के बावजूद लौटते समय वे बहुत गम्भीर  थे । हाथियों का क्रिकेट ,गणपति की मुद्रा में स्टूल पर बैठे हाथी ,रस्सी पर एक पहिये वाली साइकिलों पर लड़कियों की सवारी आदि मनमोहक नृत्यों के बारे में वे कतई न सोच सके । सबके मन में उस शेर का चित्र था  ,जिसने पिंजरे से बाहर लाया जाते ही गुर्राना शुरू कर दिया था ।हंटर लिए सामने खड़े आदमी की परवाह वह कतई नहीं कर रहा था । उल्टे हंटर वाला खुद काँप रहा था ।

दोबारा जब शेर ने पिंजरे  में जाने से इंकार कर दिया ,तब उसको पिंजरे  में डालने के लिए सर्कस की पूरी टुकड़ी को आपातकाल की घंटी से इकट्ठा करना पड़ा था ।
एक पल के लिए बंधक मजदूरों को लगा कि गुर्राने वाला शेर वे स्वयं हैं और सामने हंटर लिए वहाँ ठाकुर गुरूदयाल खड़ा है । पिंजरे में हो या बाहर ,गुलामी आखिर गुलामी होती है । वे आत्मालोचन करते हुये सोचने लगे कि जानवर अकेला है । उसमें सोचने की शक्ति नहीं है । अपनी ताकत का अंदाजा भी उसे नहीं है । फिर भी ,गुलामी से कितनी नफरत करता है । आजादी को कितना चाहता है । और हम !एकाएक वे आत्मग्लानि से भर उठे ।

न जाने क्यों ,मुखिया को उनकी यह चुप्पी कुछ खतरनाक लगी । उद्वेग पूर्वक उसने पूछा –क्यों ?तुम लोग चुप क्यों हो ?
-तब अचानक सबके सब बोल उठे –मुखिया जी ,हमें यह  सर्कस फिर से देखना है ,आज ही !
हंटर वाले पर गुर्राने वाले बब्बर शेर की कल्पना तब तक उन लोगों के मन में घर कर गई थी। 


|3|कुत्ता

हमेशा की तरह अत्यधिक मदिरापान की खुमारी से सोकर उठे पिता ने पुत्री से कहा-- –
-अरी  ओ !पेट जल रहा है ,दो एक रुपए तो  निकाल ,जरा चाय –पानी हो जाय ।
-एक बेनाम लेकिन गहरी ईर्ष्या से पुत्री ने कहा –
-मेरे पास कहाँ है रुपया ---–कल मुझे कुछ दिया था क्या ?
पिता को गुस्सा आया । वह ज़ोर –ज़ोर से चिल्लाया :
-तेरे पास रुपया नहीं है ! तो फिर रात भर कुत्ता क्यों भौंका ?

समाप्त 

1 टिप्पणी:

  1. मेहनतकश सर्वहारा वर्ग की पीड़ा व गुलामी की जंजीरों को तोड़कर खुले गगन में उड़ने की अभिलाषा का सजीव,मार्मिक चित्रण।तानाशाही,शोषण के खिलाफ उठती आवाज़े निज़ाम बदल ही देती हैं।केरल का मज़दूर वर्ग अपने अधिकारों को लेकर बहुत सजग है।तीनो कथाएं बहुत अच्छी लगीं।

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