तूलिकासदन

गुरुवार, 31 जनवरी 2019

.॥ 26॥ लघुकथाकार बलराम अग्रवाल की लघुकथा



 समंदर :एक प्रेम कथा  
 
   बलराम अग्रवाल   

               
    
 
मित्रों,बलराम अग्रवाल जी का यह नया लघुकथा संग्रह है - 'तैरती हैं पत्तियाँ। इन दिनों यह चर्चा में है। जैसे-जैसे इसकी रचनाओं के बारे में सुनती या पढ़ती इस संग्रह को पढ़ने की लालसा बलवती होती गई।  बलराम भाई जी ने अंतत: मुझे भी इसे उपलब्ध करा ही दिया। इसके लिए मैं उनकी आभारी हूँ।
    संग्रह की भूमिका सुप्रसिद्ध साहित्‍यकार डॉ॰ विश्वनाथ त्रिपाठी ने लिखी है। उनकी इस बात से मैं शत-प्रतिशत सहमत हूँ कि इस संग्रह की लघुकथाएं जीवन को आधुनिक व्यापक दृष्टि से देखने वाले कथाकार की रचनाएँ हैं । इन पत्तियों को पढ़कर हम कहानी नहीं जीवन पढ़ते हैं।
    बलराम जी ने भी अपने मन की बात इस संग्रह में बड़ी बेबाकी से लिखी है,आने वाले समय में कहानी कहानीपरक लघुकथा की तरफ खींच जाएगी। कहानी आकार बढ़ाने के लिए रेत सा बिखरना छोड़ देगी और लघुकथा आकार को संकुचित रखने की शास्त्रीय शर्तों से विद्रोह कर देगी।”
    थोड़ी-बहुत मैं भी कहानियाँ लिखती रहती हूँ। मैंने अनुभव किया है कि समय की रफ्तार और समकालीन परिस्थितियों के कारण बड़ा कथानक ,लंबे लंबे  संवाद और पात्रों की भीड़ देखकर पाठक जल्दी जल्दी पृष्ठ पलटते हुए अंत जानने की कोशिश में रहता है। धैर्य से खुद को कहानी से जोड़ने में वह अपने को असमर्थ पाता है।इसलिए कहानी के फैलाव को रोकना ही होगा। ऐसा मेरा भी सोचना है।
    लघुकथा संग्रह मिलते ही मैंने पढ़ना तो शुरू कर दिया पर पहली लघुकथा पर ही अटककर रह गई हूँ। वह है ही ऐसी! पहले आप भी उसे पढ़ लीजिये फिर मैंने उस पर जो कहा  है,वह पढ़िए।
 
समंदर : एक प्रेमकथा
 
    “उधर से तेरे दादा निकलते थे और इधर से मैं ---”
    दादी ने सुनाना शुरू किया। किशोर पौत्री आँखें फाड़कर उनकी ओर देखती रही----एकदम निश्चल;गोया कहानी सुनने की बजाय कोई फिल्म देख रही हो।
    “लंबे कदम बढ़ाते,करीब-करीब भागते-से,हम एक-दूसरे की ओर बढ़ते ---बड़ा रोमांच होता था।”
     यों कहकर एक पल को वह चुप हो गयींऔर आँखें बंद करके बैठ गयीं।
    बच्ची ने पूछा-“फिर?”
    “फिर क्या!बीच में समंदर होता था –गहरा और काला---।
    “समंदर!”
    “हाँ---दिल ठाठें मारता था न ,उसी को कह रही हूँ।”
    “दिल था,तो गहरा और काला क्यों?”
    “चोर रहता था न दिल में ---घरवालों से छिपकर निकलते थे!”
    “ओ----s---आप भी?”
    “----और तेरे दादा भी।
    “फिर?”
    “फिर,इधर से मैं समंदर को पीना शुरू करती थी,उधर से तेरे दादा ---!सारा समंदर सोख जाते थे हम और एक जगह जा मिलते थे।”
    “सारा समंदर!!कैसे?”
    “कैसे क्या ----s---जवान थे भई,एक क्या सात समंदर पी सकते थे!”
    “मतलब क्या हुआ इसका?”
    “हर बात मैं ही बतलाऊं! तुम भी तो दिमाग के घोड़ों को दौड़ाओ कुछ।"दादी ने हल्की-सी चपत उसके सिर पर लगाई और हँस दी।
 
अब मुझे भी कहना है कुछ ---
   प्रेम शिखा हमेशा प्रज़्जलित रहती है चाहे वह अतीत हो या वर्तमान। भविष्य में भी इसकी कड़ियाँ जुड़ी रहेगी इसका अहसास जब शिराओं में स्पंदित होता है तो अंग-अंग उजाले से भर उठता है। और प्रेम---दुगुन वेग से  महकने लगता है। तभी तो दादी मुग्धा की तरह पोती के सामने अपना दिल खोल बैठी- “लंबे कदम बढ़ाते ,करीब भागते-से ,हम एक दूसरे की ओर बढ़ते—बड़ा रोमांच होता था। --बीच में समंदर होता था –गहरा और काला---। --- इधर से मैं समंदर को पीना शुरू करती थी,उधर से तेरे दादा ---!सारा समंदर सोख जाते थे हम और एक जगह जा मिलते थे।”
    ‘समंदर’ शब्द में भी कितना गूढ रहस्य छिपा है।  यह समंदर नदियों के विलयन वाला नील समंदर नहीं बल्कि प्रेमियों के बीच लहराता गहरा काला दिल ।  काला दिल ! चौंकाने वाली बात !इससे पर्दा उठाते हुए दादी की जुबान से ही सुनिए-“चोर रहता था न दिल में –घरवालों से छिपकर निकलते थे।” बहुत ही खूबसूरती से काले दिल को परिभाषित किया है।
    अति मर्यादित रूप में युवावस्था के प्रेम की असीम शक्ति को  उजागर करते उसे  एक ही वाक्य में सांकेतिक भाषा में पिरो दिया गया है  जब बच्ची ने  आश्चर्य से पूछा-“सारा समंदर !!कैसे?”
    “जवान थे भई,एक क्या सात समंदर पी सकते थे।”
    इसका मतलब पूछने पर दादी सुनहरे अतीत की घाटियों में अवश्य प्रेम,प्रणय और समर्पण की स्निग्ध बौछारों में भीग गई होगी। तभी तो उससे केवल इतना कहते बना-“तुम भी तो दिमाग के घोड़ों को दौड़ाओ कुछ।"
    अपने कथ्‍य,भाषा,गठन और संप्रेषण की दृष्टि से प्रेमकथाओं में यह एक श्रेष्‍ठ लघुकथा है। इसमें निहित गूढ़ संवादों ने इसका कद बहुत ऊंचा कर दिया है। बलराम जी ने एक- एक शब्द का  सावधानी से चयन कर लघुकथा की दीवार पर सुंदरता से उन्हें टंकित किया है। न कहीं अनर्गल अलाप न अनावश्यक विस्तार। लघुकथा के अंतिम छोर पर पहुँचते-पहुँचते तो लगा- इर्द-गिर्द प्यार भरी फूल की पत्तियाँ  झरझरा कर झर रही हैं।
समाप्त