तरक्की
भगवान वैद्य ‘प्रखर’
अपनी उपज
के दाम लेकर अभी-अभी गया किसान लौटकर आढ़तिये के पास आया और नोटों की गड्डी दिखाते हुए
कहने लगा, “यह गड्डी मुझे अभी दी आपने ! इसमें गड़बड़ है।”
“मैंने पहले ही कहा था, गिन लो। एक बार यहाँ से चले जाने
के बाद मेरी कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती। चलते
बनो यहाँ से।”-आढ़तिया झुंझलाया।
“दस कदम
ही तो गया था। मुझे गिनना नहीं आता इसलिए अपने एक साथी से गिनवाया।”
“ज्यादा
होशियार मत बनो। अब कुछ नहीं हो सकता। हटो यहाँ से, हवा आने दो।
एक तो आज वैसे ही भीड़ है। ऊपर से ऐसे लोग चले आते हैं सिर खाने ---!” आढ़तिया दूसरे
किसान की ओर मुड़ गया था।
मेरा साथी
कह रहा है, इस गड्डी में सौ की बजाय एक सौ दो नोट हैं दो नोट
ज्यादा----।" किसान की बात पूरी भी न हो पाई थी कि आढ़तिये ने कुर्सी से उठकर किसान के हाथ से गड्डी झटक ली। नोट गिने और दो नोट
निकालकर गड्डी किसान को लौटा दी। किसान संतुष्ट होकर मुड़ा ही था कि आढ़तिया
बुदबुदाया, “जो दस रुपए के दो नोट नहीं पचा सकते, वो जीवन में क्या तरक्की करेंगे!”
संकलनकर्ता –सुधा भार्गव
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