तूलिकासदन

शनिवार, 26 मई 2018

लघुकथाकार किशोर श्री वास्तव की लघुकथा ॥ 25॥



शैतानी

 लघुकथाकार किशोर श्रीवास्तव



      आज फिर मैंने रोज-रोज की शैतानियों से तंग आकर अपने सात वर्षीय बेटे की धुनाई कर दी। मैंने उसे चेतावनी देते हुए कहा-“यदि आज तूने मुझसे बात की तो तेरी खैर नहीं।” यही नहीं, गुस्से में आज मैंने उसके साथ खाना न खाने की प्रतिज्ञा भी कर डाली।जबकि मैं जानता था कि शाम का खाना वह मेरे ही साथ खाता है, भले ही उसे मेरा कितना ही इंतजार क्यों न करना पड़े। आज मैंने कार्यालय जाते समय उसे प्यार भी नहीं किया। कार्यालय जाकर मैं अपने रोज़मर्रा के कामों में इस कदर उलझ गया कि कब चपरासी मेरी टेबल पर लंच रखकर चला गया और कब मैंने उसे खा लिया इसका मुझे होश ही न रहा। कार्यालय के कुछ महत्वपूर्ण कामों के चलते शाम को घर पहुंचने में  भी काफी देरी हो गई। घर पहुंचा तो पत्नी सोती मिली। बेटे ने ही दरवाजा खोला। परंतु मैं बगैर उससे कोई बात किए ड्राइंग रूम के सोफे पर पसर गया। अचानक मेरी  नजर फर्श पर गिर पड़ी एक तस्वीर पर पड़ी,जो ड्राइंग की दीवार पर बहुत दिनों से टंगी हुई थी। शायद हवा से उखड़कर वह गिर गई थी। मैं स्टूल पर चढ़कर उस तस्वीर को पुन: दीवार पर टाँगने की कोशिश करता रहा। तस्वीर टाँगने के पश्चात जब मैं स्टूल से नीचे उतरने को झुका तो देखा,बेटा दोनों हाथों से ज़ोर से स्टूल को थामे खड़ा है। उसे वहाँ देखकर मेरा पारा फिर गरम हो उठा।
      मैं उस पर बरसते हुए चिल्लाया, “क्यों रे,अब तू यहाँ स्टूल पकड़े खड़ा क्या कर रहा है---क्या कोई नई शरारत सूझी है तुझे?”
      इस पर डरते –डरते वह धीरे से बुदबुदाया, “पापा शरारत नहीं---कहीं आप गिर पड़ते तो---?”
       धीमी आवाज में कहे गए उसके उपर्युक्त शब्द मेरे कानों से जा टकराए।  मेरा गुस्सा पल भर में काफूर हो गया था। मैंने स्टूल से नीचे उतरकर उसे अपनी बाहों मेँ भर लिया। मेरी बाहों में आते ही वह मेरे कान के पास अपना मुंह सटाकर धीरे से फुसफुसाया , “पापा---चलो मेरे साथ---खाना खा लो—मुझे बहुत भूख लगी है---मैंने आपके इंतजार में सुबह से कुछ भी नहीं खाया है---।”

संकलनकर्ता-सुधा भार्गव 







मंगलवार, 15 मई 2018

लघुकथाकार रत्नकुमार साभंरिया की लघुकथा ॥ 24॥



     ग्राम्य जीवन के चितेरे कथाकार रत्न कुमार सांभरिया की रचनाओं में दलित वर्ग की पीड़ा की अभिव्यक्ति  पाठक के मर्म को छू- छू जाती है। जीने की राह  लघुकथा भी इस काव्यानुभूति से अछूती नहीं है।


 जीने की राह

रत्नकुमार साभंरिया
      
      


      लोहे के सरियों से लक़दक़ हाथ-रेहड़ी के जुआ को अपने पेट से सटाकर खींचता हुआ, वह गंतव्य की ओर जा रहा था। जिस रास्ते को उसे तय करना था, उसमें कहीं टायर धँसता था, कहीं खड्डे भरे थे, कहीं नुकीले पत्थर खड़े थे, कहीं कांटे-कंकरीट पड़े थे। आधा किलोमीटर का रास्ता पहाड़ की ऊंची चोटी चढ़ने से भी ज्यादा कष्टदायी महसूस हुआ था उसे। हालाकि मौसम सर्दी का था, लेकिन उसके बदन पर पसीना था। चलते-हंकते उसे हाँफी छूट जाती, तो वह रेहड़ी के जुआ की मूठ जमीन पर टिकाकार सुस्ताने बैठ जाता। जेब से बीड़ी निकालकर उसे फूंकता, गीली मिट्टी की लुगती खून के उद्गम श्रोतों पर उन्हें रख दबाता तो सांस जुड़ती, फिर रेहड़ी खींचता। डामर की सड़क आती,उसके पंजों से निकलते लहू के चकत्ते पड़ जाते।
      सूमों के ठुके तैनालों की खटपट के साथ एक घोड़ा दौड़ता हुआ उसे पीछे छोड़ गया था।
      समान छोडने के बाद वह घर आकर सीधा खाट में जा गिरा और ज़ोर-ज़ोर से कराहने लगा। उसकी पत्नी रोज की तरह गरम गर्म पानी की बाल्टी लाकर उसके पास बैठ गई। वह फाहों को गर्म पानी में डुबोती और उसके तलबों को सेकती थी। गर्म पानी के फाहों की रगड़ से जब गीली मिट्टी बह गई तो घावों का मुख चमकने लगा। उसकी पत्नी ने घावों में धँसे छोटे-छोटे कांटे, पत्थर की किरचें, लकड़ी की एक लंबी फांस निकाली। वह एक टीसभरी हे-हे के साथ सिकुड़कर रह गया था।
     अपने पति की दुर्दशा देखकर उसका मन पीड़ा से भर आया था। विस्फारित नेत्रों में आँसू डबडबाने लगे थे। रोती सी बोली-“अभी जाकर जूतियाँ पहन आओ। इस तरह कितने दिन रह पाओगे?”
      उसने अपने हड़ीले चेहरे में धँसी छोटी-छोटी आँखों को टिमटिमाकर अपनी पत्नी को समझाया-“जूतियाँ चार दिन नहीं पकड़ेंगी। पैसे बेकार। तैनालवाले के पास जाऊंगा कल, वह घोड़ों की तरह मेरे पंजों में भी लोहा ठोंक दे---।”
      पति-पत्नी एक दूसरे से लिपट गए और देर तक रोते रहे।

संकलनकर्ता –सुधा भार्गव

बुधवार, 2 मई 2018

लघुकथाकार भगवान वैद्य ‘प्रखर’ की लघुकथा' ॥ 23॥ .



तरक्की 


भगवान वैद्य प्रखर


     
      अपनी उपज के दाम लेकर अभी-अभी गया किसान लौटकर आढ़तिये के पास आया और नोटों की गड्डी दिखाते हुए कहने लगा, “यह गड्डी मुझे अभी दी आपने ! इसमें गड़बड़ है।”
     मैंने पहले ही कहा था, गिन लो। एक बार यहाँ से चले जाने के बाद मेरी  कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती। चलते बनो यहाँ से।”-आढ़तिया झुंझलाया।
     “दस कदम ही तो गया था। मुझे गिनना नहीं आता इसलिए अपने एक साथी से गिनवाया।”
     “ज्यादा होशियार मत बनो। अब कुछ नहीं हो सकता। हटो यहाँ से, हवा आने दो। एक तो आज वैसे ही भीड़ है। ऊपर से ऐसे लोग चले आते हैं सिर खाने ---!” आढ़तिया दूसरे किसान की ओर मुड़ गया था।
     मेरा साथी कह रहा है, इस गड्डी में सौ की बजाय एक सौ दो नोट हैं दो नोट
ज्यादा----।" किसान की बात पूरी भी न हो पाई थी कि आढ़तिये ने कुर्सी से उठकर  किसान के हाथ से गड्डी झटक ली। नोट गिने और दो नोट निकालकर गड्डी किसान को लौटा दी। किसान संतुष्ट होकर मुड़ा ही था कि आढ़तिया बुदबुदाया, “जो दस रुपए के दो नोट नहीं पचा सकते, वो जीवन में क्या तरक्की करेंगे!”

संकलनकर्ता –सुधा भार्गव