बबूल
यह लघुकथा अपने कलेवर में बहुत कुछ समेटे हुए हैं।इसने सिद्ध कर दिया है कि साहस से परिपूर्ण रक्षा का कवच खुद नारी है । उसका साहस उसकी शक्ति है। आज भी पुजारी जैसे भेड़ियों की कमी नहीं जब तक नारी अपनी रक्षा के लिए खुद कटिबद्ध नहीं होगी तब तक इक्कीसवी सदी की नारी भी कहीं सुरक्षित नहीं ।
रोज की तरह शाम को एक खास समय पर खेतों के किनारे से सटी पगडंडी पर साइकिल दौड़ाते हुए खेड़ा गाँव के मंदिर के प्रौण पुजारी अचानक साइकिल रोककर उससे उतरे और साइकिल को पगडंडी के किनारे खड़े बबूल के पेड़ से टिकाकर खेत के किनारे हँसिये से बबूल की दातौन को छीलती हुई जवान लच्छों के पास आकर खड़े हो गए, खूबसूरत लच्छों पर पुजारी की निगाह बहुत पहले से थी। आज एकांत पाकर उनके भीतर का भूखा भेड़िया जाग उठा।
वे
आँखों में नाखून लेकर उसके पास आए और उसके उन्नत वक्ष पर हाथ फिराते बोले, “अरी तेरी अंगिया तो बीच से बहुत चिर गई है, इसे सी
लेना ,या तू कहे तो कल तेरे लिए नई अंगिया ला दूँ।”
लच्छो
ने अपने सीने पर नजर डाली। वाकई उसकी अंगिया फटी हुई थी और उसके वक्ष की गोलाइयाँ
साफ चमक रही थीं।
लच्छो
उन्हें छुपाते हुए बोली, “पुजारी चाचा
,सुबह से शाम तक बाजार में बेचने के लिए बबूल की दातौन जो
छीलती रहती हूँ सो किसी कांटे की करतूत रही होगी जिससे अंगिया फट गई---।” और ऐसा कहकर वह लापरवाही से फिर अपने तेज हँसिये से
बबूल की दातौन छीलने लगी।
----अगले
दिन गन्ने के खेत में पुजारी की लाश मिली। लच्छो पुलिस की कस्टडी में थी। उसका बदन
तार-तार था। चेहरे पर दांतों के निशान ,पर बदन पर नाखूनों
की खरोंचें । बिखरे हुए बाल। लहूलुहान शरीर। तार-तार हुए कपड़े। ये सब चुप रहकर
सारी कहानी कह रहे थे। पुलिस पूछताछ कर रही थी । लच्छो बोलती जा रही थी, “साहब बबूल को छीलकर दातौन बनाते है हम! बबूल के एक कांटे ने तो हमारी
अंगिया ही फाड़ी थी, ये पापी तो हमारे अंग-अंग को तार-तार कर
देना चाहता था।”
फिर
अपने गालों और शरीर के अन्य हिस्सों पर पुजारी के नाखून और दांतों के निशान दिखाकर
बोली, “हरामजादा मुझे ही दातौन समझ रहा था।” फिर मुंह बिचककर बोली, “हम तो बबूल की दातौन बनाते ही हैं,सो हमने बबूल की
नाई छील दिया स्साले को।”
लच्छों
की बेबाक बात सुनकर भीड़ में खड़े लोगों की घिग्गी बंध गई थी ।
संकलनकर्ता-सुधा भार्गव
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