तूलिकासदन

सोमवार, 25 फ़रवरी 2019

॥ 27 ॥ चंद्रा सायता की लघुकथा



अविराम साहित्यिकी का अक्तूबर-दिसंबर 2018 का अंक पुराने अंकों के साथ रख रही थी कि एकाएक ध्यान आया पहले अंकों को भी जरा खंगाल लूँ—कहीं ये  अलमारी की शोभा बनकर न रह जाएँ । 2015 का अंक पकड़ में आते ही उसे खोला।  पृष्ठ 4-5 में चंद्रा सायता जी की लघुकथाअकेलापनपर नजरपड़ते ही वह मेरे दिल में उतर गई।
आजकल की आपाधापी ज़िंदगी में हर कोई अकेलेपन का शिकार नजर आता है। बुजुर्ग तो बुजुर्ग बच्चे भी इसकी चपेट मेँ हैं चन्द्रा जी ने इस समस्या को बहुत खूबसूरती व दक्षता से अपनी लघुकथा में उभारा है। इसके बारे मेँ कुछ और कहूँ इससे पहले आप इसे पढ़ लीजिये ----
 अकेलापन /चंद्रा सायता 
गुलाब के पौधे की दो टहनियों आपस में इस तरह उलझ गईं की एक पर खिले सफेद फूल दूसरी पर खिले गुलाबी फूल के बीच की दूरी नहीं के बराबर रह गई थी।
सौम्या आँगन में खड़ी अपने इकलौते बेटे अबीर को उन दोनों की ओर संकेत करती बोली ,”देखो –देखो अबीर,दोनों कितने सुंदर लग रहे हैं,जैसे भाई-भाई हों ।”
अबीर ने  देखकर भी ऐसा जताया मानो वह देख नहीं रहा हो। माँ के कथन पर उसने किसी प्रकार की मौखिक प्रति क्रिया भी व्यक्त नहीं की।
मोबाइल पर आ रहे कॉल को सुनने के लिए सौम्या वहाँ से हट गई। बात पूरी  करके वह पुन:उधर पलटी, देखा कि दोनों में से एक गुलाबी रंग का फूल टहनी पर नहीं था.................!जमीन पर उसकी पट्टियाँ बिखरी पड़ी थी!!
उसने देखा कि घर के अंदर जाने वाली सीढ़ियों पर अबीर चेहरे को दोनों हथेलियों के बीच थामे ,कोहनियाँ घुटनों पर टिकाये उदास मुद्रा में बैठा है।
 यह हरकत तुमने की अबीर?”गुस्से से लाल होती सौम्या ने पूछा।
अबीर ने कोई जबाब नहीं दिया। जस का तस गुमसुम बैठा रहा।
“मैं तुमसे पूछ रही हूँ---।”वह पुन: चीखी।
“हाँ—हाँ—मैंने ही तोड़ा है उसे। जब मेरा कोई भाई नहीं है तो इसका क्यों हो?”उसकी नजर अब सफेद गुलाब की ओर थी और चेहरे पर तनाव।
अरे भाभी आप यहाँ हो?” कहती हुई सौम्या की छोटी नन्द अपने तीन वर्षीय   बेटे अंकित को गोद में लिए आँगन तक पहुँच चुकी थी। सौम्या उसे अचानक आया देख ठगी—सी रह गई। कुछ पल बाद वह बोली-“अरे लवीला तुम कब आईं?---अरे हमारा छोटा-सा गोलू गुलाबी ड्रेस में कितना प्यारा लग रहा है!”अंकित के गाल चूमते हुए सौम्य बोली। मौके का फायदा उठाते हुये उसने अबीर की ओर देखते हुए कहा-“लो तुम्हारा छोटा भाई आ गया अबीर।”
अबीर  की आँखें खुशी से चमक उठीं।
(19,श्रीनगर कॉलोनी (मेन ), इंदौर-452018 (म॰प्र॰) /मोबा ॰09329637679)
अब मैं भी कुछ कह लेती हूँ।  
इस लघुकथा में माँ सौम्या  सफेद और गुलाबी फूलों की ओर इशारा करते कहती है  –“देखो---देखो अबीर ,दोनों कितने सुंदर लग रहे हैं जैसे भाई-भाई हों।” वह चुप रहा पर माँ के जाते ही गुलाबी फूल को टहनी से तोड़ उसे तहस –नहस कर डाला। 
अबीर की यह क्रिया उसकी मानसिक अवस्था को दर्शाती है। वह अकेलेपन से घबरा गया था। उसे अपना एक भाई चाहिए था जिसके साथ खेल सके –मन की बात कह सके। साथ –साथ जाए-आए। माँ के मुंह से भाई शब्द सुनते  ही उसको ठेस पहुंची । उसे अपने भाई न होने का अभाव खटकने लगा। उससे पैदा हुई खीज व आक्रोश उसके व्यवहार में झलकने लगा।
जमीन पर बिखरी पट्टियों को देख गुस्से से लाल सौम्या ने पूछा-“यह हरकत तुमने की अबीर।”
“हाँ—हाँ –मैंने ही तोड़ा है  उसे। जब मेरा कोई छोटा भाई नहीं है तो इसका क्यों हो?” उसकी नजर अब सफेद गुलाब की ओर थी और चेहरे पर तनाव।
अबीर के जबाब से स्पष्ट है कि अकेलेपन ने उसे कितना तोड़कर रख दिया था।अकेले ही अकेले घुट रहा था इसी कारण वह मासूम असमय ही ईर्ष्या,बदले की भावना ,क्रोध,तनाव का शिकार हो गया। ऐसे बच्चे अपने मनोभावों को शब्दों का जामा नहीं पहना पाते ,केवल महसूस करते हैं।  खुद की लड़ाई अकेले ही लड़ते हैं। यदि माँ –बाप ने अपने बच्चे के असामान्य व्यवहार को ताड़ लिया और समय होते समाधान निकाल लिया तो उस बच्चे को बहुत भाग्यवान समझो।
चन्द्रा जी ने इसी यथार्थ की ओर इशारा करते हुए अपनी लघुकथा का अंत बहुत ही सुंदर ढंग से किया है।
“अरे भाभी आप यहाँ हो?”कहती हुई सौम्या की छोटी नन्द अपने  तीन वर्षीय बेटे अंकित को गोद में लिए आंगन तक पहुँच चुकी थी। ---मौके का फायदा उठाते हुये उसने अबीर की ओर देखते हुए कहा-,”लो,तुम्हारा छोटा भाई आ गया अबीर।”अबीर की आँखें खुशी से चमक उठीं।
यह तो होना ही था क्योंकि वह अकेलेपन के अभिशाप से मुक्त हो चुका था।
यह संकेतात्मक लघुकथा अति सहजता से नई पीढ़ी के लिए बहुत कुछ कह गई है,हाँ,उस पीढ़ी के लिए जो अपने कैरियर की चिंता से ग्रस्त केवल एक बच्चे के माँ-बाप बनने के पक्ष में है। एक बच्चा प्रोब्लम चाइल्ड बन कर रह जाता है। अपने लिए भी और अपने माँ-बाप के लिए भी।
 आशा है भविष्य में बाल जगत व उनके मनोविज्ञान से संबन्धित लघुकथाएं और भी पढ़ने को मिलेंगी। 

गुरुवार, 31 जनवरी 2019

.॥ 26॥ लघुकथाकार बलराम अग्रवाल की लघुकथा



 समंदर :एक प्रेम कथा  
 
   बलराम अग्रवाल   

               
    
 
मित्रों,बलराम अग्रवाल जी का यह नया लघुकथा संग्रह है - 'तैरती हैं पत्तियाँ। इन दिनों यह चर्चा में है। जैसे-जैसे इसकी रचनाओं के बारे में सुनती या पढ़ती इस संग्रह को पढ़ने की लालसा बलवती होती गई।  बलराम भाई जी ने अंतत: मुझे भी इसे उपलब्ध करा ही दिया। इसके लिए मैं उनकी आभारी हूँ।
    संग्रह की भूमिका सुप्रसिद्ध साहित्‍यकार डॉ॰ विश्वनाथ त्रिपाठी ने लिखी है। उनकी इस बात से मैं शत-प्रतिशत सहमत हूँ कि इस संग्रह की लघुकथाएं जीवन को आधुनिक व्यापक दृष्टि से देखने वाले कथाकार की रचनाएँ हैं । इन पत्तियों को पढ़कर हम कहानी नहीं जीवन पढ़ते हैं।
    बलराम जी ने भी अपने मन की बात इस संग्रह में बड़ी बेबाकी से लिखी है,आने वाले समय में कहानी कहानीपरक लघुकथा की तरफ खींच जाएगी। कहानी आकार बढ़ाने के लिए रेत सा बिखरना छोड़ देगी और लघुकथा आकार को संकुचित रखने की शास्त्रीय शर्तों से विद्रोह कर देगी।”
    थोड़ी-बहुत मैं भी कहानियाँ लिखती रहती हूँ। मैंने अनुभव किया है कि समय की रफ्तार और समकालीन परिस्थितियों के कारण बड़ा कथानक ,लंबे लंबे  संवाद और पात्रों की भीड़ देखकर पाठक जल्दी जल्दी पृष्ठ पलटते हुए अंत जानने की कोशिश में रहता है। धैर्य से खुद को कहानी से जोड़ने में वह अपने को असमर्थ पाता है।इसलिए कहानी के फैलाव को रोकना ही होगा। ऐसा मेरा भी सोचना है।
    लघुकथा संग्रह मिलते ही मैंने पढ़ना तो शुरू कर दिया पर पहली लघुकथा पर ही अटककर रह गई हूँ। वह है ही ऐसी! पहले आप भी उसे पढ़ लीजिये फिर मैंने उस पर जो कहा  है,वह पढ़िए।
 
समंदर : एक प्रेमकथा
 
    “उधर से तेरे दादा निकलते थे और इधर से मैं ---”
    दादी ने सुनाना शुरू किया। किशोर पौत्री आँखें फाड़कर उनकी ओर देखती रही----एकदम निश्चल;गोया कहानी सुनने की बजाय कोई फिल्म देख रही हो।
    “लंबे कदम बढ़ाते,करीब-करीब भागते-से,हम एक-दूसरे की ओर बढ़ते ---बड़ा रोमांच होता था।”
     यों कहकर एक पल को वह चुप हो गयींऔर आँखें बंद करके बैठ गयीं।
    बच्ची ने पूछा-“फिर?”
    “फिर क्या!बीच में समंदर होता था –गहरा और काला---।
    “समंदर!”
    “हाँ---दिल ठाठें मारता था न ,उसी को कह रही हूँ।”
    “दिल था,तो गहरा और काला क्यों?”
    “चोर रहता था न दिल में ---घरवालों से छिपकर निकलते थे!”
    “ओ----s---आप भी?”
    “----और तेरे दादा भी।
    “फिर?”
    “फिर,इधर से मैं समंदर को पीना शुरू करती थी,उधर से तेरे दादा ---!सारा समंदर सोख जाते थे हम और एक जगह जा मिलते थे।”
    “सारा समंदर!!कैसे?”
    “कैसे क्या ----s---जवान थे भई,एक क्या सात समंदर पी सकते थे!”
    “मतलब क्या हुआ इसका?”
    “हर बात मैं ही बतलाऊं! तुम भी तो दिमाग के घोड़ों को दौड़ाओ कुछ।"दादी ने हल्की-सी चपत उसके सिर पर लगाई और हँस दी।
 
अब मुझे भी कहना है कुछ ---
   प्रेम शिखा हमेशा प्रज़्जलित रहती है चाहे वह अतीत हो या वर्तमान। भविष्य में भी इसकी कड़ियाँ जुड़ी रहेगी इसका अहसास जब शिराओं में स्पंदित होता है तो अंग-अंग उजाले से भर उठता है। और प्रेम---दुगुन वेग से  महकने लगता है। तभी तो दादी मुग्धा की तरह पोती के सामने अपना दिल खोल बैठी- “लंबे कदम बढ़ाते ,करीब भागते-से ,हम एक दूसरे की ओर बढ़ते—बड़ा रोमांच होता था। --बीच में समंदर होता था –गहरा और काला---। --- इधर से मैं समंदर को पीना शुरू करती थी,उधर से तेरे दादा ---!सारा समंदर सोख जाते थे हम और एक जगह जा मिलते थे।”
    ‘समंदर’ शब्द में भी कितना गूढ रहस्य छिपा है।  यह समंदर नदियों के विलयन वाला नील समंदर नहीं बल्कि प्रेमियों के बीच लहराता गहरा काला दिल ।  काला दिल ! चौंकाने वाली बात !इससे पर्दा उठाते हुए दादी की जुबान से ही सुनिए-“चोर रहता था न दिल में –घरवालों से छिपकर निकलते थे।” बहुत ही खूबसूरती से काले दिल को परिभाषित किया है।
    अति मर्यादित रूप में युवावस्था के प्रेम की असीम शक्ति को  उजागर करते उसे  एक ही वाक्य में सांकेतिक भाषा में पिरो दिया गया है  जब बच्ची ने  आश्चर्य से पूछा-“सारा समंदर !!कैसे?”
    “जवान थे भई,एक क्या सात समंदर पी सकते थे।”
    इसका मतलब पूछने पर दादी सुनहरे अतीत की घाटियों में अवश्य प्रेम,प्रणय और समर्पण की स्निग्ध बौछारों में भीग गई होगी। तभी तो उससे केवल इतना कहते बना-“तुम भी तो दिमाग के घोड़ों को दौड़ाओ कुछ।"
    अपने कथ्‍य,भाषा,गठन और संप्रेषण की दृष्टि से प्रेमकथाओं में यह एक श्रेष्‍ठ लघुकथा है। इसमें निहित गूढ़ संवादों ने इसका कद बहुत ऊंचा कर दिया है। बलराम जी ने एक- एक शब्द का  सावधानी से चयन कर लघुकथा की दीवार पर सुंदरता से उन्हें टंकित किया है। न कहीं अनर्गल अलाप न अनावश्यक विस्तार। लघुकथा के अंतिम छोर पर पहुँचते-पहुँचते तो लगा- इर्द-गिर्द प्यार भरी फूल की पत्तियाँ  झरझरा कर झर रही हैं।
समाप्त

 

शनिवार, 26 मई 2018

लघुकथाकार किशोर श्री वास्तव की लघुकथा ॥ 25॥



शैतानी

 लघुकथाकार किशोर श्रीवास्तव



      आज फिर मैंने रोज-रोज की शैतानियों से तंग आकर अपने सात वर्षीय बेटे की धुनाई कर दी। मैंने उसे चेतावनी देते हुए कहा-“यदि आज तूने मुझसे बात की तो तेरी खैर नहीं।” यही नहीं, गुस्से में आज मैंने उसके साथ खाना न खाने की प्रतिज्ञा भी कर डाली।जबकि मैं जानता था कि शाम का खाना वह मेरे ही साथ खाता है, भले ही उसे मेरा कितना ही इंतजार क्यों न करना पड़े। आज मैंने कार्यालय जाते समय उसे प्यार भी नहीं किया। कार्यालय जाकर मैं अपने रोज़मर्रा के कामों में इस कदर उलझ गया कि कब चपरासी मेरी टेबल पर लंच रखकर चला गया और कब मैंने उसे खा लिया इसका मुझे होश ही न रहा। कार्यालय के कुछ महत्वपूर्ण कामों के चलते शाम को घर पहुंचने में  भी काफी देरी हो गई। घर पहुंचा तो पत्नी सोती मिली। बेटे ने ही दरवाजा खोला। परंतु मैं बगैर उससे कोई बात किए ड्राइंग रूम के सोफे पर पसर गया। अचानक मेरी  नजर फर्श पर गिर पड़ी एक तस्वीर पर पड़ी,जो ड्राइंग की दीवार पर बहुत दिनों से टंगी हुई थी। शायद हवा से उखड़कर वह गिर गई थी। मैं स्टूल पर चढ़कर उस तस्वीर को पुन: दीवार पर टाँगने की कोशिश करता रहा। तस्वीर टाँगने के पश्चात जब मैं स्टूल से नीचे उतरने को झुका तो देखा,बेटा दोनों हाथों से ज़ोर से स्टूल को थामे खड़ा है। उसे वहाँ देखकर मेरा पारा फिर गरम हो उठा।
      मैं उस पर बरसते हुए चिल्लाया, “क्यों रे,अब तू यहाँ स्टूल पकड़े खड़ा क्या कर रहा है---क्या कोई नई शरारत सूझी है तुझे?”
      इस पर डरते –डरते वह धीरे से बुदबुदाया, “पापा शरारत नहीं---कहीं आप गिर पड़ते तो---?”
       धीमी आवाज में कहे गए उसके उपर्युक्त शब्द मेरे कानों से जा टकराए।  मेरा गुस्सा पल भर में काफूर हो गया था। मैंने स्टूल से नीचे उतरकर उसे अपनी बाहों मेँ भर लिया। मेरी बाहों में आते ही वह मेरे कान के पास अपना मुंह सटाकर धीरे से फुसफुसाया , “पापा---चलो मेरे साथ---खाना खा लो—मुझे बहुत भूख लगी है---मैंने आपके इंतजार में सुबह से कुछ भी नहीं खाया है---।”

संकलनकर्ता-सुधा भार्गव 







मंगलवार, 15 मई 2018

लघुकथाकार रत्नकुमार साभंरिया की लघुकथा ॥ 24॥



     ग्राम्य जीवन के चितेरे कथाकार रत्न कुमार सांभरिया की रचनाओं में दलित वर्ग की पीड़ा की अभिव्यक्ति  पाठक के मर्म को छू- छू जाती है। जीने की राह  लघुकथा भी इस काव्यानुभूति से अछूती नहीं है।


 जीने की राह

रत्नकुमार साभंरिया
      
      


      लोहे के सरियों से लक़दक़ हाथ-रेहड़ी के जुआ को अपने पेट से सटाकर खींचता हुआ, वह गंतव्य की ओर जा रहा था। जिस रास्ते को उसे तय करना था, उसमें कहीं टायर धँसता था, कहीं खड्डे भरे थे, कहीं नुकीले पत्थर खड़े थे, कहीं कांटे-कंकरीट पड़े थे। आधा किलोमीटर का रास्ता पहाड़ की ऊंची चोटी चढ़ने से भी ज्यादा कष्टदायी महसूस हुआ था उसे। हालाकि मौसम सर्दी का था, लेकिन उसके बदन पर पसीना था। चलते-हंकते उसे हाँफी छूट जाती, तो वह रेहड़ी के जुआ की मूठ जमीन पर टिकाकार सुस्ताने बैठ जाता। जेब से बीड़ी निकालकर उसे फूंकता, गीली मिट्टी की लुगती खून के उद्गम श्रोतों पर उन्हें रख दबाता तो सांस जुड़ती, फिर रेहड़ी खींचता। डामर की सड़क आती,उसके पंजों से निकलते लहू के चकत्ते पड़ जाते।
      सूमों के ठुके तैनालों की खटपट के साथ एक घोड़ा दौड़ता हुआ उसे पीछे छोड़ गया था।
      समान छोडने के बाद वह घर आकर सीधा खाट में जा गिरा और ज़ोर-ज़ोर से कराहने लगा। उसकी पत्नी रोज की तरह गरम गर्म पानी की बाल्टी लाकर उसके पास बैठ गई। वह फाहों को गर्म पानी में डुबोती और उसके तलबों को सेकती थी। गर्म पानी के फाहों की रगड़ से जब गीली मिट्टी बह गई तो घावों का मुख चमकने लगा। उसकी पत्नी ने घावों में धँसे छोटे-छोटे कांटे, पत्थर की किरचें, लकड़ी की एक लंबी फांस निकाली। वह एक टीसभरी हे-हे के साथ सिकुड़कर रह गया था।
     अपने पति की दुर्दशा देखकर उसका मन पीड़ा से भर आया था। विस्फारित नेत्रों में आँसू डबडबाने लगे थे। रोती सी बोली-“अभी जाकर जूतियाँ पहन आओ। इस तरह कितने दिन रह पाओगे?”
      उसने अपने हड़ीले चेहरे में धँसी छोटी-छोटी आँखों को टिमटिमाकर अपनी पत्नी को समझाया-“जूतियाँ चार दिन नहीं पकड़ेंगी। पैसे बेकार। तैनालवाले के पास जाऊंगा कल, वह घोड़ों की तरह मेरे पंजों में भी लोहा ठोंक दे---।”
      पति-पत्नी एक दूसरे से लिपट गए और देर तक रोते रहे।

संकलनकर्ता –सुधा भार्गव

बुधवार, 2 मई 2018

लघुकथाकार भगवान वैद्य ‘प्रखर’ की लघुकथा' ॥ 23॥ .



तरक्की 


भगवान वैद्य प्रखर


     
      अपनी उपज के दाम लेकर अभी-अभी गया किसान लौटकर आढ़तिये के पास आया और नोटों की गड्डी दिखाते हुए कहने लगा, “यह गड्डी मुझे अभी दी आपने ! इसमें गड़बड़ है।”
     मैंने पहले ही कहा था, गिन लो। एक बार यहाँ से चले जाने के बाद मेरी  कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती। चलते बनो यहाँ से।”-आढ़तिया झुंझलाया।
     “दस कदम ही तो गया था। मुझे गिनना नहीं आता इसलिए अपने एक साथी से गिनवाया।”
     “ज्यादा होशियार मत बनो। अब कुछ नहीं हो सकता। हटो यहाँ से, हवा आने दो। एक तो आज वैसे ही भीड़ है। ऊपर से ऐसे लोग चले आते हैं सिर खाने ---!” आढ़तिया दूसरे किसान की ओर मुड़ गया था।
     मेरा साथी कह रहा है, इस गड्डी में सौ की बजाय एक सौ दो नोट हैं दो नोट
ज्यादा----।" किसान की बात पूरी भी न हो पाई थी कि आढ़तिये ने कुर्सी से उठकर  किसान के हाथ से गड्डी झटक ली। नोट गिने और दो नोट निकालकर गड्डी किसान को लौटा दी। किसान संतुष्ट होकर मुड़ा ही था कि आढ़तिया बुदबुदाया, “जो दस रुपए के दो नोट नहीं पचा सकते, वो जीवन में क्या तरक्की करेंगे!”

संकलनकर्ता –सुधा भार्गव  
   




शुक्रवार, 20 अप्रैल 2018

कहानीकार रवीन्द्र वर्मा की लघुकथा ॥ 22॥



रेत का पर्दा
      
       तदभव पत्रिका  अंक 8 अक्तूबर 2002 में प्रतिष्ठित कहानीकार रवीन्द्र वर्मा की पाँच कहानियाँ प्रकाशित हुई थीं । उनमें से एक रेत का पर्दा है। इसको कहानी तो  कहा है पर अपने शिल्प में यह लघुकथा ही है । हृदय की व्यथा और घुटन को बड़े कलात्मक रूप में व्यक्त किया है । इसलिए यह कुछ अलग सी लगती है।
      



      दीनदयाल की सुबह की चाय का टाइम आठ बजे था। जब वे नौ बजे तक हॉल में नहीं आए ,तो बहू ने अंदर जाकर कमरे में देखा वे चित्त लेटे थे जैसे किसी समाधि में हों। “बाबूजी,बाबूजी” जयंती ने पुकारा। शरीर में कोई जुंबिश नहीं हुई। फिर जयंती ने शरीर का हाथ हिलाया। हाथ हिला जैसे कोई लकड़ी हिली हो।जयंती ने शरीर टटोला जिस तरफ दिल था। वह भागती हुई हॉल में गई। फोन किया। तुरंत नीचे की मंजिल से आकर डॉक्टर मेहता  ने मुआयना किया और दीनदयाल को मृत घोषित कर दिया।
      जयंती चीखी।
     “मगर क्यों?”दफ्तर के लिए तैयार खड़े किशन ने हैरानी से कहा, “वे भले चंगे सोये थे।”
     “इस उम्र में कुछ भी हो सकता है।” डॉक्टर ने कहा, दिल का दौरा भी। ”
     “मगर उनको दिल की कोई बीमारी नहीं थी।”
     दिल यूं ही रुक सकता है---अचानक थक कर।”
     “मगर कोई वजह तो हो?”किशन ने जिद की।
     डॉक्टर ने कुछ खीजकर कहा,”वजह जानने के लिए पोस्टमार्टम कराना पड़ेगा।”
     किशन सोच में पड़ गया । उसने कुछ कहा नहीं। सोचा जरूर कि पोस्टमार्टम तो हत्या या अत्महत्या की वजह जानने के लिए होता है।
      जब अर्थी उठी तो बबलू बिलख –बिलख कर रोया। वह यह कहते हुए माँ से लिपटा कि दादाजी क्यों जा रहे हैं,उसे क्यों रोज की तरह साथ नहीं ले जाते? कल भी नहीं ले गए थे।
     कल असल में दादाजी ने बबलू से बहुत कम बात की थी। खाना खाते वक्त वह दोपहर में  मेज पर साथ बैठा तो हाँ ना में कुछ कहा था।वे बाजार अकेले ही चले गए थे। कल सुबह बबलू का अंग्रेज़ी दिन शुरू हुआ था।उसे तीन माह बाद कोनवेंट ऑफ जीजस एंड मेरी में प्रवेश के लिए लिखित और मौखिक परीक्षा देनी थी। इसलिए जयंती और किशन ने तय किया था कि अभ्यास के लिए अब घर में बबलू से अँग्रेजी में ही वार्तालाप होगा। उनका कहना था कि वह तभी कुछ सीख सकेगा और बोलने का आत्मविश्वास अर्जित कर सकेगा। जयंती फर्राटे से अँग्रेजी बोलती थी। उसे बहुत बुरा लगा था जब परसों मिसेज डीसूजा अपने दोनों बच्चों के साथ मिलने आई थीं और उन्होंने अपने दोनों बच्चों से कहा था कि बबलू से हिन्दी में बात करो उसे अँग्रेजी नहीं आती। यह उन्होंने अँग्रेजी में कहा था जिसे जयंती ने सुना था। यह संयोग ही था कि तीन माह बाद बबलू को प्रवेश परीक्षा में बैठना था। उसी रात जयंती और किशन की मंत्रणा के बाद कल सुबह से घर में अँग्रेजी का शाश्वत पीरियड लगने का ऐलान हो गया था।
     दीनदयाल सकते में आ गए थे।
     वे कल अनमने से उठे थे। पार्क में उगते सूरज की किरणों के साथ घूमते हुए वे पेड़ों की पत्तियों को घूरते रहे थे। उन्होंने हर दूसरी झाड़ी से पत्ती नोच ली थी। पार्क की पगडंडी पर कई बार जूते से ठोकर मारी थी। जब धूल सूर्य की किरणों में चमकती  तो उन्हें अच्छा लगता। फिर वे थककर बेंच पर बैठ गए थे और बैठे रह गए थे। कितनी देर? उन्हें पता ही नहीं चला था। जब धूप बेंच तक आ गई और उनकी आँखें चौंधियायी , तब उन्हें पता चला।
      रोज की तरह कल सुबह उन्होंने पार्क से लौटकर बबलू के कमरे में नहीं झाँका था। न उसे सोया जानकर अखबार पढ़ते हुए उसके जागने का इंतजार किया था। बल्कि उन्हें आश्चर्य हुआ था कि उन्होंने अखबार से आँखें नहीं उठाईं जब बबलू हॉल में आया। कोई और दिन होता तो अखबार फेंककर वे बबलू को बाहों में उठा लेते और चीखते-“आ जा मेरे राजा!”
     बबलू  कुछ देर उनके आसपास घूमता रहा, फिर अंदर चला गया था जहां से उसके रोने की आवाज आई थी ।
      वे तब भी अंदर उसे गोद में लेकर घुमाने ले जाने नहीं गए थे।
      दोपहर तक उनकी समझ में आ गया था कि उनके पैर उन्हें वहाँ नहीं ले जाना चाहते थे जहां बबलू था। जब बबलू वहाँ आ जाता जहां वे थे,तो वे यस  नो करने लगते-ज़्यादातर “नो”। उन्हों ने कभी अपने बच्चों से अँग्रेजी में बातें नहीं की थीं। अँग्रेजी में उन्होंने सिर्फ अपने अफसर या मातहतों से बात की थी। अब जब वे कभी बहुत क्रुद्ध होते तो अँग्रेजी में बड़बड़ाने लगते थे। बबलू से अँग्रेजी में बात करने का मतलब उससे क्रुद्ध होना था।
      वे बबलू से क्रुद्ध नहीं हो सकते थे।
      कल दिनभर उनके चारों ओर घर में अदृश्य रेत उड़ती रही थी जैसे घर घर न हो रेगिस्तान हो। रात को उन्होंने रेगिस्तान का सपना देखा था जहां गरम हवाओं के चक्रवात थे और उनके बीच रेत के पर्दे उड़ रहे थे। उनकी अंतिम स्मृति रेत  का एक काँपता पर्दा थी ,जिसके पीछे उन्होंने अपने को खोटते हुए देखा था। उन्हें खुद मालूम नहीं था कि वे उस क्षण जाग रहे थे या सपना देख रहे थे।
      किशन को कभी पता नहीं चला कि पिता देह छोड़कर क्यों चले गए।

संकलनकर्ता -सुधा भार्गव 



मंगलवार, 17 अप्रैल 2018

लघुकथाकार कुंअर बेचैन की लघुकथा || 21 ||

                   बबूल


     
       यह लघुकथा अपने कलेवर में बहुत कुछ समेटे हुए हैं।इसने सिद्ध कर दिया है कि साहस से परिपूर्ण रक्षा का कवच खुद नारी है । उसका साहस उसकी शक्ति है। आज भी पुजारी जैसे भेड़ियों की कमी नहीं जब तक नारी अपनी रक्षा के लिए खुद कटिबद्ध नहीं होगी तब तक इक्कीसवी सदी की नारी भी कहीं सुरक्षित नहीं ।
      
      रोज की तरह शाम को एक खास समय पर खेतों के किनारे से सटी  पगडंडी पर साइकिल दौड़ाते हुए खेड़ा गाँव के मंदिर के प्रौण पुजारी अचानक साइकिल रोककर  उससे उतरे और साइकिल को पगडंडी के किनारे खड़े बबूल के पेड़ से टिकाकर खेत के किनारे हँसिये से बबूल की दातौन को छीलती हुई जवान लच्छों के पास आकर खड़े हो गए, खूबसूरत लच्छों पर पुजारी की निगाह बहुत पहले से थी। आज एकांत पाकर उनके भीतर का भूखा भेड़िया जाग उठा।  
      वे आँखों में नाखून लेकर उसके पास आए और उसके उन्नत वक्ष पर हाथ फिराते बोले, “अरी तेरी अंगिया तो बीच से बहुत चिर गई है, इसे सी लेना ,या तू कहे तो कल तेरे लिए नई अंगिया ला दूँ।” 
     लच्छो ने अपने सीने पर नजर डाली। वाकई उसकी अंगिया फटी हुई थी और उसके वक्ष की गोलाइयाँ साफ चमक  रही थीं।
     लच्छो उन्हें छुपाते हुए बोली, पुजारी चाचा ,सुबह से शाम तक बाजार में बेचने के लिए बबूल की दातौन जो छीलती रहती हूँ सो किसी कांटे की करतूत रही होगी जिससे अंगिया फट गई---।” और ऐसा  कहकर वह लापरवाही से फिर अपने तेज हँसिये से बबूल की दातौन छीलने लगी।
      ----अगले दिन गन्ने के खेत में पुजारी की लाश मिली। लच्छो पुलिस की कस्टडी में थी। उसका बदन तार-तार था। चेहरे पर दांतों के निशान ,पर बदन पर नाखूनों की खरोंचें । बिखरे हुए बाल। लहूलुहान शरीर। तार-तार हुए कपड़े। ये सब चुप रहकर सारी कहानी कह रहे थे। पुलिस पूछताछ कर रही थी । लच्छो बोलती जा रही थी, “साहब बबूल को छीलकर दातौन बनाते है हम! बबूल के एक कांटे ने तो हमारी अंगिया ही फाड़ी थी, ये पापी तो हमारे अंग-अंग को तार-तार कर देना चाहता था।”
      फिर अपने गालों और शरीर के अन्य हिस्सों पर पुजारी के नाखून और दांतों के निशान दिखाकर बोली, “हरामजादा मुझे ही दातौन समझ रहा था।” फिर मुंह बिचककर बोली, “हम तो बबूल की दातौन बनाते ही हैं,सो हमने बबूल की नाई छील दिया स्साले को।”
     लच्छों की बेबाक बात सुनकर भीड़ में खड़े लोगों की घिग्गी बंध गई थी ।

संकलनकर्ता-सुधा भार्गव