तूलिकासदन

रविवार, 8 अप्रैल 2018

पंजाबी लघुकथाकार जसबीर बेदर्द लंगेरी , डॉ कर्मजीत सिंह नडाला, सतिपाल खुल्लर की लघुकथाएं ॥11-13॥


विगत दशक की पंजाबी लघुकथाएँ-संग्रह 

       प्रथम बार मुझे  पंजाबी मिन्नी कहानियों (लघुकथा )का हिन्दी में अनुवाद किया हुआ
 तीसरा संग्रह-'विगत दशक  की पंजाबी लघुकथाएँ'  पढ़ने का अवसर मिला ।इसे मुझे रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु 'ने भेंट किया था ।
  
इसके सम्पादक श्याम सुन्दरअग्रवाल तथा डॉ श्याम सुन्दर दीप्ति हैं ।

प्रकाशक है -

अयन प्रकाशन

1/20 महरौली ,नई दिल्ली - 1100030

मूल्य -260.00 रुपये 

दूरभाष :26645812/9818988613

e.mail:ayanprakashan@rediffmail.com 



       इस संग्रह में जनजीवन से जुड़ी विविध विषयों  पर लिखी  लघुकथाएं  जिज्ञासा के पुल पर रुचिता लाते हुए संवेदना से सारोवार, दिल में घर कर लेती हैं । अधिकांशत मिन्नी कथाओं के  पात्र रोने झींकने व् सिसकने में विशवास नहीं  करते  बल्कि समस्या का समाधान ढूँढ़ते हुए जीने की इच्छा रखते हैं --वे निराशावादी न होकर उनमें  कुछ कर गुजरने की कशिश  है ।

       सकारात्मक दृष्टिकोण से  इनमें चेतना के स्वर सुनाई देते है चाहे वह नारीमंच हो या निम्न वर्ग ,रिश्तों का अटूट बंधन हो या उनकी टूटन -- अनेक लघुकथाओं में एक बेहतर समाज के दर्शन होते हैं और भविष्य के प्रति हम आशान्वित हो उठते हैं ।  

संग्रह से यहाँ तीन लघुकथाएँ उद्घृत की जा रही हैं जो अपने में विशेष हैं ।  


1--भूकंप/ डॉ कर्मजीत सिंह नडाला

        बेटा सोलह वर्ष का हुआ तो वह उसे भी साथ ले जाने लगा ।
        "कैसे हाथ –पाँव टेढ़े –मेढ़े करके चौक के कोने में  बैठना है,आदमी देख कैसे ढीला सा मुंह बनाना है।   लोगों  को बुद्धू बनाने के लिए द्या का पात्र बनकर कैसे अपनी ओर आकर्षित करना है।  ऐसे बन जाओ कि सामने से गुजर रहे आदमी का दिल पिघल जाये और सिक्का उछलकर तुम्हारे कटोरे में आ गिरे।"
        वह सीखता रहा और जैसा पिता कहता ,वैसा बनने की कोशिश भी करता  फिर एक दिन पिता ने पुत्र से कहा –"जा अब तू खुद ही भीख मांगा कर।"
        पुत्र शाम को घर लौटा । आते ही उसने अपनी जेब से रुपए निकालकर पिता की ओर बढ़ाए –"ले बापू ,मेरी पहली कमाई ---।"
       "हैं !कंजर !पहले दिन ही सौ रुपये !इतने तो कभी मैं आज तक कमाकर नहीं ला सका ,तुझे कहाँ से मिल गए ?"
       "बस ऐसे ही बापू ,मैं तुझसे आगे निकल गया ।"
       "अरे कहीं किसी की जेब तो नहीं काट ली।" 
        "नहीं,बिलकुल नहीं।"
      "अरे आजकल तो लोग बड़ी फटकार लगाकर भी आठ आने –रुपया बड़ी मुश्किल से देते हैं—तुझ पर किस देवता की मेहर हो गई ?"
       "बापू ,अगर ढंग से मांगो तो लोग आप ही खुश होकर पैसे दे देते हैं ।"
       "तू कौन से नए ढंग की बात करता है ,कंजर ?पहेलियाँ न बुझा । पुलिस की मार खुद भी खाएगा और हमें भी मरवाएगा । बेटा अगर भीख मांग कर गुजारा हो जाए तो चोरी चकारी की क्या जरूरत है ?पल भर की आँखों की शर्म है –हमारे पुरखे भी  यही कुछ करते रहे हैं ,हमें भी यही करना है । हमारी नसों में  भिखारियों वाला खानदानी खून है ---हमारा भी यही रोजगार है ,यही कारोबार है । ये खानदानी रिवायतें कभी बदली हैं?तू आदमी बन जा ---।"
      "बापू आदमी बन गया हूँ ,तभी कह रहा हूँ । मैंने पुरानी रिवायतें  तोड़ दी हैं । मैं आज राज मिस्त्री के साथ दिहाड़ी करके आया हूँ । एक कॉलोनी में किसी का मकान बन रहा है । उन्होंने  शाम को सौ रुपये  दिये । सरदार कह रहा था ,रोज आ जा या कर ,सौ रुपए मिल जाया करेंगे --।"
        पिता हैरान हुआ । कभी बेटे की ओर देखता ,कभी रुपयों की ओर । यह लड़का कैसी बातें कर रहा है। आज उसकी खानदानी रियासत में भूकंप  आ गया था ,जिसने सब कुछ उलट -पुलट दिया था ।

2-- बदला हुआ स्वर/सतिपाल खुल्लर

        बहू उसके आगे रोटी की थाली और पानी का गिलास रख गई थी । वह चुपचाप रोटी खाने लगा ।
        'यह भी कोई जिंदगी है !पिछले कई वर्षों से ऐसा ही चल रहा है । घर में कोई समारोह हो ,उससे पूछा तक नहीं जाता । सभी को चाय –पानी पिलाने के बाद उसकी बारी आती है । रोटी खाते हुये वह सोच रहा था । उसे लगा ,वह तो जैसे घर का सदस्य ही नहीं । फिर उसे अपने पिता की याद आई जो सौ वर्ष की उम्र भोग कर मरा था । कितना दबदबा था उसका घर में । वह अपने पिता का ध्यान भी तो बहुत रखता था । लेकिन उसकी पत्नी और बच्चे  उसकी सेवा से बहुत दुखी थे ।कभी –कभी उसे लगता कि अपनी इस अवस्था के लिए वह खुद ही जिम्मेदार है ।
       "मैंने इस सब्जी से रोटी नहीं खानी । मेरे लिए कोई और सब्जी बनाओ।" गाजर की सब्जी से उसके पिता को जैसे चिढ़ थी ।"
      "बापू ,ऐसे न किया कर ।" उस दिन उसने जैसे अपनी बेबसी जाहिर की थी।
      "ये मेरा पाठ करने वाला मोढ़ा और गुटका है ,उन्हें यहाँ से कोई  न हिलाये । मैंने सौ बार कहा है पर किसी पर कोई असर ही नहीं होता ।"
      "बापू ,धीरे बोल ---।"
       "मुझे किसी का डर है ?यह मेरा घर है ,मैंने इसे अपने इन हाथों से बनाया है ।" बापू क्रोध में और भी ऊंचे स्वर में बोलता ।
      "यह बात तो ठीक है ।" पर उसे लगता कि बापू  व्यर्थ ही क्लेश किए रखता है ।
       इस तरह की बातें घर में नित्य  ही होती रहती थीं । तब वह  सोचता –"मैं यह सब नहीं करूंगा । जो पकाया ,बनाया हुआ होगा ,वही खा लिया करूंगा । चारपाई पर बैठा राम –राम करता रहूँगा । जिंदगी का क्या है ,आदमी को जीने का ढंग आना चाहिए ।"
       पर अब उसे लगने लगा कि वह तो बस रोटी खाने का ही साझेदार है । घर में उसका कोई अस्तित्व ही नहीं । आज रोटी खाते हुये वह बापू को याद कर रहा था । बापू ठीक ही तो कहता था –आदमी को घर में अपना अस्तित्व तो बनाकर रखना ही चाहिए । कोई काम तो हो। भोजन करने के बाद आम दिनों के विपरीत वह ज़ोर से खांसा और अपने पोते को आवाज दी ,जैसे बापू उसके बेटे को बुलाया करता था । आवाज सुनकर घर वालों के कान खड़े हो गए ।
       "हैं ---दादा जी !यह तो दादाजी की आवाज है ।" उसका अपना बेटा ही अपनी माँ की ओर देखकर बोला ।
        इससे पहले वह कभी ऊंची आवाज में नहीं बोला था । उसकी पत्नी भागकर आई । फल भर के लिए उसे लगा ,जैसे उसका पति नहीं ,उसका ससुर उसके सामने बैठा हो ।
       "सुनो ,आगे से सब्जी मुझ से पूछकर बनाया करो ।" वह अपनी बहू को सुनाता हुआ बोला।   


3--मंदिर /जसबीर बेदर्द लंगेरी

        सुरिंदर ने कोठी बनवाने से पहले अपने आर्कीटेक्ट दोस्त को घर बुलाया और कहा -"यार विजय! कोठी बनानी है ,एक अच्छा सा नक्शा बनादे और मुझे समझा भी दे ।" 
        "सुरिंदर ,मेरे पास कई नक़्शे बने पड़े  हैं …यह देख ,यह अभी बनाया है । इसमें सब कुछ अपनी जगह पर पूरी तरह फिट है ।।पर एक चीज फालतू है , आपके काम की नहीं ---यह छोटा सा पूजा वाला कमरा ,क्योंकि आप हुए तर्क शील।" 
       "नहीं यार ,यह कमरा तो बहुत जरूरी है । यह तो एक साइड पर  है और छोटा भी । हमें तो यह कमरा बड़ा चाहिए ,साथ में हवादार भी । इसमें हमने भी मूर्ति रखनी है ,वह भी जीती जागती ,जिसके हर समय दर्शन होते रहें ।" सुरिंदर बोला । 
       "जीती जागती मूर्ति !वह कौन सी ?"विजय ने हैरान होते हुए कहा  । 
        "यह देख हमारे भगवान् की मूर्ति ।" सुरिंदर ने सोफे पर साफ- सुथरी वस्त्रों में बैठी अपनी माँ के गले में पीछे से बांह डालते हुए कहा । 
       "बेटा विजय ,समय चाहे बदल गया ,फिर भी माँओं ने सरवन बेटों को पैदा करना बंद नहीं किया है।"  माँ ने भावुक होते हुए कहा।  
      "वाह कमाल है भई !जिस घर में बिजुर्गों का इतना सम्मान हो ,वहां मंदिर बनाने की क्या जरूरत है। वह तो घर ही मंदिर है ---ठीक है ,मैं सब समझ  गया । अच्छा मैं कल आऊंगा ।" 
इतना कह विजय उठने लगा तो सुरिंदर की पत्नी चाय और बिस्कुट मेज पर  रखते हुए बोली --          "भाई  सा --ब !मंदिर से खाली हाथ नहीं जाते । यह लो प्रसाद ।"  

समाप्त 




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